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शुक्रवार, 20 मार्च 2015

उस धमाके में और भी लोगों की जानें जाती अगर ये कुत्ता न होता

उस धमाके में और भी लोगों की जानें जाती अगर ये कुत्ता न होता

बात 21 साल पहले की है जब 12 मार्च 1993 के दिन सिर्फ दो घंटे 12 मिनट में मायानगरी मुंबई ने 12 धमाके झेले. इन धमाकों ने 257 लोगों की जानें ली और करीब 700 लोग जख्‍मी हुए थे. ये संख्या और भी बढ़ सकती थी अगर 'जंजीर' ने अपनी सूझबूझ और समझदारी नहीं दिखाई होती.
अब आप सोच रहें होंगे कि यह जंजीर कौन है जिसकी यहां चर्चा हो रही है.  दरअसल जंजीर मुंबई पुलिस की डॉग स्क्वायड का सबसे काबिल डॉग (कुत्ता) था. जिसने अपनी काबलियत से 1993 मुंबई हमले में हजारों किलो विस्फोटक सामग्री को खोज निकाला
जंजीर ही एकमात्र वह कारण बना, जिसकी समझदारी से पूरे मुंबई  में 11 मिलिट्री बम, 57 कंट्री मेड बम, 175 पेट्रोल बम, और 600 डेटोनेटर, 249 हैंड ग्रेनेंड्स और 6 हजार 406 जिंदा विस्फोटक सामग्री को ढूंढ निकाला था. इस तरह जंजीर ने मुंबई, मुंब्रा, और ठाणे में कम से कम तीन और हमले को टालने में मुंबई पुलिस की मदद की
जंजीर' की बहादुरी ने उसे रातों रात लोगों को चहेता बना दिया और वह एक हीरो के रूप में लोगों के दिलों में बस गया. दुखद बात यह रही कि फेफड़े और पंजे में सूजन के कारण 16 नवंबर, 2000 में जंजीर की मौत हो गई. हजारों लोगों की जान बचाने वाले इस हीरो का मुंबई पुलिस ने पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया था. 'जंजीर' के अंतिम संस्कार के दौरान मुंबई पुलिस के कई आला अफसर भी मौजूद रहे.
कैसे मिली मुंबई पुलिस में इंट्री
लैब्राडोर प्रजाजि से संबंध रखने वाला जंजीर पुणे के डॉग ट्रेनिंग सेंटर ऑफ दी क्रिमिनल इवेस्टिगेशन डिपार्टमेंट से प्रशिक्षित था. 29 दिंसबर 1992 में वह मुंबई पुलिस के बम डिटेक्शन और डिस्पोजल स्क्वायड से जुड़ा जिसे गणेश एंडेल और वी जी राजपूत हैंडल करते थे. जंजीर का नाम 1973 में आई अमिताभ की फिल्म जंजीर से लिया गया था.

मंगलवार, 17 मार्च 2015

बालकाण्डश्री सीताजी का पार्वती पूजन एवं वरदान प्राप्ति तथा राम-लक्ष्मण संवाद


बालकाण्ड

श्री सीताजी का पार्वती पूजन एवं वरदान प्राप्ति तथा राम-लक्ष्मण संवाद

दोहा :

* देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।

निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि॥234॥

भावार्थ:-मृग, पक्षी और वृक्षों को देखने के बहाने सीताजी बार-बार घूम जाती हैं और श्री रामजी की छबि देख-देखकर उनका प्रेम कम नहीं बढ़ रहा है। (अर्थात्‌ बहुत ही बढ़ता जाता है)॥234॥

चौपाई :

* जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥

प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥1॥

भावार्थ:-शिवजी के धनुष को कठोर जानकर वे विसूरती (मन में विलाप करती) हुई हृदय में श्री रामजी की साँवली मूर्ति को रखकर चलीं। (शिवजी के धनुष की कठोरता का स्मरण आने से उन्हें चिंता होती थी कि ये सुकुमार रघुनाथजी उसे कैसे तोड़ेंगे, पिता के प्रण की स्मृति से उनके हृदय में क्षोभ था ही, इसलिए मन में विलाप करने लगीं। प्रेमवश ऐश्वर्य की विस्मृति हो जाने से ही ऐसा हुआ, फिर भगवान के बल का स्मरण आते ही वे हर्षित हो गईं और साँवली छबि को हृदय में धारण करके चलीं।) प्रभु श्री रामजी ने जब सुख, स्नेह, शोभा और गुणों की खान श्री जानकीजी को जाती हुई जाना,॥1॥

* परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित्त भीतीं लिखि लीन्ही॥

गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी॥2॥

भावार्थ:-तब परमप्रेम की कोमल स्याही बनाकर उनके स्वरूप को अपने सुंदर चित्त रूपी भित्ति पर चित्रित कर लिया। सीताजी पुनः भवानीजी के मंदिर में गईं और उनके चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर बोलीं-॥2॥

*जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥

जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥3॥

भावार्थ:-हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमाचल की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो, हे महादेवजी के मुख रूपी चन्द्रमा की (ओर टकटकी लगाकर देखने वाली) चकोरी! आपकी जय हो, हे हाथी के मुख वाले गणेशजी और छह मुख वाले स्वामिकार्तिकजी की माता! हे जगज्जननी! हे बिजली की सी कान्तियुक्त शरीर वाली! आपकी जय हो! ॥3॥

* नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥

भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥4॥

भावार्थ:-आपका न आदि है, न मध्य है और न अंत है। आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते। आप संसार को उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली हैं। विश्व को मोहित करने वाली और स्वतंत्र रूप से विहार करने वाली हैं॥4॥

दोहा :

* पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।

महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥235॥

भावार्थ:-पति को इष्टदेव मानने वाली श्रेष्ठ नारियों में हे माता! आपकी प्रथम गणना है। आपकी अपार महिमा को हजारों सरस्वती और शेषजी भी नहीं कह सकते॥235॥

चौपाई :

* सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥

देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥1॥

भावार्थ:-हे (भक्तों को मुँहमाँगा) वर देने वाली! हे त्रिपुर के शत्रु शिवजी की प्रिय पत्नी! आपकी सेवा करने से चारों फल सुलभ हो जाते हैं। हे देवी! आपके चरण कमलों की पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं॥1॥

* मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥

कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥2॥

भावार्थ:-मेरे मनोरथ को आप भलीभाँति जानती हैं, क्योंकि आप सदा सबके हृदय रूपी नगरी में निवास करती हैं। इसी कारण मैंने उसको प्रकट नहीं किया। ऐसा कहकर जानकीजी ने उनके चरण पकड़ लिए॥2॥

* बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी॥

सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥3॥

भावार्थ:-गिरिजाजी सीताजी के विनय और प्रेम के वश में हो गईं। उन (के गले) की माला खिसक पड़ी और मूर्ति मुस्कुराई। सीताजी ने आदरपूर्वक उस प्रसाद (माला) को सिर पर धारण किया। गौरीजी का हृदय हर्ष से भर गया और वे बोलीं-॥3॥

* सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥

नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥4॥

भावार्थ:-हे सीता! हमारी सच्ची आसीस सुनो, तुम्हारी मनःकामना पूरी होगी। नारदजी का वचन सदा पवित्र (संशय, भ्रम आदि दोषों से रहित) और सत्य है। जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही वर तुमको मिलेगा॥4॥

छन्द :

* मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।

करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥

एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।

तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥

भावार्थ:-जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुंदर साँवला वर (श्री रामचन्द्रजी) तुमको मिलेगा। वह दया का खजाना और सुजान (सर्वज्ञ) है, तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है। इस प्रकार श्री गौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सब सखियाँ हृदय में हर्षित हुईं। तुलसीदासजी कहते हैं- भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चलीं॥

सोरठा :

* जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।

मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥236॥

भावार्थ:-गौरीजी को अनुकूल जानकर सीताजी के हृदय को जो हर्ष हुआ, वह कहा नहीं जा सकता। सुंदर मंगलों के मूल उनके बाएँ अंग फड़कने लगे॥236॥

चौपाई :

* हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई॥

राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं॥1॥

भावार्थ:-हृदय में सीताजी के सौंदर्य की सराहना करते हुए दोनों भाई गुरुजी के पास गए। श्री रामचन्द्रजी ने विश्वामित्र से सब कुछ कह दिया, क्योंकि उनका सरल स्वभाव है, छल तो उसे छूता भी नहीं है॥1॥

* सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही॥

सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भय सुखारे॥2॥

भावार्थ:-फूल पाकर मुनि ने पूजा की। फिर दोनों भाइयों को आशीर्वाद दिया कि तुम्हारे मनोरथ सफल हों। यह सुनकर श्री राम-लक्ष्मण सुखी हुए॥2॥

* करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी॥

बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई॥3॥

भावार्थ:-श्रेष्ठ विज्ञानी मुनि विश्वामित्रजी भोजन करके कुछ प्राचीन कथाएँ कहने लगे। (इतने में) दिन बीत गया और गुरु की आज्ञा पाकर दोनों भाई संध्या करने चले॥3॥

* प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥

बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥4॥

भावार्थ:-(उधर) पूर्व दिशा में सुंदर चन्द्रमा उदय हुआ। श्री रामचन्द्रजी ने उसे सीता के मुख के समान देखकर सुख पाया। फिर मन में विचार किया कि यह चन्द्रमा सीताजी के मुख के समान नहीं है॥4॥

दोहा :

* जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।

सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक॥237॥

भावार्थ:-खारे समुद्र में तो इसका जन्म, फिर (उसी समुद्र से उत्पन्न होने के कारण) विष इसका भाई, दिन में यह मलिन (शोभाहीन, निस्तेज) रहता है, और कलंकी (काले दाग से युक्त) है। बेचारा गरीब चन्द्रमा सीताजी के मुख की बराबरी कैसे पा सकता है?॥237॥

चौपाई :

* घटइ बढ़इ बिरहिनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥

कोक सोकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥1॥

भावार्थ:-फिर यह घटता-बढ़ता है और विरहिणी स्त्रियों को दुःख देने वाला है, राहु अपनी संधि में पाकर इसे ग्रस लेता है। चकवे को (चकवी के वियोग का) शोक देने वाला और कमल का बैरी (उसे मुरझा देने वाला) है। हे चन्द्रमा! तुझमें बहुत से अवगुण हैं (जो सीताजी में नहीं हैं।)॥1॥

* बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोषु बड़ अनुचित कीन्हे॥

सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुर पहिं चले निसा बड़ि जानी॥2॥

भावार्थ:-अतः जानकीजी के मुख की तुझे उपमा देने में बड़ा अनुचित कर्म करने का दोष लगेगा। इस प्रकार चन्द्रमा के बहाने सीताजी के मुख की छबि का वर्णन करके, बड़ी रात हो गई जान, वे गुरुजी के पास चले॥2॥

* करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा॥

बिगत निसा रघुनायक जागे। बंधु बिलोकि कहन अस लागे॥3॥

भावार्थ:-मुनि के चरण कमलों में प्रणाम करके, आज्ञा पाकर उन्होंने विश्राम किया, रात बीतने पर श्री रघुनाथजी जागे और भाई को देखकर ऐसा कहने लगे-॥3॥

* उयउ अरुन अवलोकहु ताता। पंकज कोक लोक सुखदाता॥

बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी॥4॥

भावार्थ:-हे तात! देखो, कमल, चक्रवाक और समस्त संसार को सुख देने वाला अरुणोदय हुआ है। लक्ष्मणजी दोनों हाथ जोड़कर प्रभु के प्रभाव को सूचित करने वाली कोमल वाणी बोले-॥4॥

दोहा :

* अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन।

जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन॥238॥

भावार्थ:-अरुणोदय होने से कुमुदिनी सकुचा गई और तारागणों का प्रकाश फीका पड़ गया, जिस प्रकार आपका आना सुनकर सब राजा बलहीन हो गए हैं॥238॥

चौपाई :

* नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी॥

कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना॥1॥

भावार्थ:-सब राजा रूपी तारे उजाला (मंद प्रकाश) करते हैं, पर वे धनुष रूपी महान अंधकार को हटा नहीं सकते। रात्रि का अंत होने से जैसे कमल, चकवे, भौंरे और नाना प्रकार के पक्षी हर्षित हो रहे हैं॥1॥

* ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे॥

उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा॥2॥

भावार्थ:-वैसे ही हे प्रभो! आपके सब भक्त धनुष टूटने पर सुखी होंगे। सूर्य उदय हुआ, बिना ही परिश्रम अंधकार नष्ट हो गया। तारे छिप गए, संसार में तेज का प्रकाश हो गया॥2॥

* रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया॥

तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी।3॥

भावार्थ:-हे रघुनाथजी! सूर्य ने अपने उदय के बहाने सब राजाओं को प्रभु (आप) का प्रताप दिखलाया है। आपकी भुजाओं के बल की महिमा को उद्घाटित करने (खोलकर दिखाने) के लिए ही धनुष तोड़ने की यह पद्धति प्रकट हुई है॥3॥

* बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने॥

कनित्यक्रिया करि गरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए॥4॥

भावार्थ:-भाई के वचन सुनकर प्रभु मुस्कुराए। फिर स्वभाव से ही पवित्र श्री रामजी ने शौच से निवृत्त होकर स्नान किया और नित्यकर्म करके वे गुरुजी के पास आए। आकर उन्होंने गुरुजी के सुंदर चरण कमलों में सिर नवाया॥4॥

* सतानंदु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए॥

जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई॥5॥

भावार्थ:- तब जनकजी ने शतानंदजी को बुलाया और उन्हें तुरंत ही विश्वामित्र मुनि के पास भेजा। उन्होंने आकर जनकजी की विनती सुनाई। विश्वामित्रजी ने हर्षित होकर दोनों भाइयों को बुलाया॥5॥

दोहा :

* सतानंद पद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ।

चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ॥239॥

भावार्थ:-शतानन्दजी के चरणों की वंदना करके प्रभु श्री रामचन्द्रजी गुरुजी के पास जा बैठे। तब मुनि ने कहा- हे तात! चलो, जनकजी ने बुला भेजा है॥239॥


मासपारायण, आठवाँ विश्राम

नवाह्न पारायण, दूसरा विश्राम

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शुक्रवार, 13 मार्च 2015

बालकाण्डशिवजी का विवाह


बालकाण्ड

शिवजी का विवाह

दोहा :

* मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।

कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥100॥

भावार्थ:-मुनियों की आज्ञा से शिवजी और पार्वतीजी ने गणेशजी का पूजन किया। मन में देवताओं को अनादि समझकर कोई इस बात को सुनकर शंका न करे (कि गणेशजी तो शिव-पार्वती की संतान हैं, अभी विवाह से पूर्व ही वे कहाँ से आ गए?)॥100॥

चौपाई :

* जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥

गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥1॥

भावार्थ:-वेदों में विवाह की जैसी रीति कही गई है, महामुनियों ने वह सभी रीति करवाई। पर्वतराज हिमाचल ने हाथ में कुश लेकर तथा कन्या का हाथ पकड़कर उन्हें भवानी (शिवपत्नी) जानकर शिवजी को समर्पण किया॥1॥

* पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हियँ हरषे तब सकल सुरेसा॥

बेदमन्त्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥2॥

भावार्थ:-जब महेश्वर (शिवजी) ने पार्वती का पाणिग्रहण किया, तब (इन्द्रादि) सब देवता हृदय में बड़े ही हर्षित हुए। श्रेष्ठ मुनिगण वेदमंत्रों का उच्चारण करने लगे और देवगण शिवजी का जय-जयकार करने लगे॥2॥

* बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥

हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥3॥

भावार्थ:-अनेकों प्रकार के बाजे बजने लगे। आकाश से नाना प्रकार के फूलों की वर्षा हुई। शिव-पार्वती का विवाह हो गया। सारे ब्राह्माण्ड में आनंद भर गया॥3॥

* दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥

अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥4॥

भावार्थ:-दासी, दास, रथ, घोड़े, हाथी, गायें, वस्त्र और मणि आदि अनेक प्रकार की चीजें, अन्न तथा सोने के बर्तन गाड़ियों में लदवाकर दहेज में दिए, जिनका वर्णन नहीं हो सकता॥4॥

छन्द :

* दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।

का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥

सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।

पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥

भावार्थ:-बहुत प्रकार का दहेज देकर, फिर हाथ जोड़कर हिमाचल ने कहा- हे शंकर! आप पूर्णकाम हैं, मैं आपको क्या दे सकता हूँ? (इतना कहकर) वे शिवजी के चरणकमल पकड़कर रह गए। तब कृपा के सागर शिवजी ने अपने ससुर का सभी प्रकार से समाधान किया। फिर प्रेम से परिपूर्ण हृदय मैनाजी ने शिवजी के चरण कमल पकड़े (और कहा-)।

दोहा :

* नाथ उमा मम प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।

छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥101॥

भावार्थ:-हे नाथ! यह उमा मुझे मेरे प्राणों के समान (प्यारी) है। आप इसे अपने घर की टहलनी बनाइएगा और इसके सब अपराधों को क्षमा करते रहिएगा। अब प्रसन्न होकर मुझे यही वर दीजिए॥101॥

चौपाई :

* बहु बिधि संभु सासु समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥

जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥1॥

भावार्थ:-शिवजी ने बहुत तरह से अपनी सास को समझाया। तब वे शिवजी के चरणों में सिर नवाकर घर गईं। फिर माता ने पार्वती को बुला लिया और गोद में बिठाकर यह सुंदर सीख दी-॥1॥

* करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥

बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥2॥

भावार्थ:-हे पार्वती! तू सदाशिवजी के चरणों की पूजा करना, नारियों का यही धर्म है। उनके लिए पति ही देवता है और कोई देवता नहीं है। इस प्रकार की बातें कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू भर आए और उन्होंने कन्या को छाती से चिपटा लिया॥2॥

* कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहूँ सुखु नाहीं॥

भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥3॥

भावार्थ:-(फिर बोलीं कि) विधाता ने जगत में स्त्री जाति को क्यों पैदा किया? पराधीन को सपने में भी सुख नहीं मिलता। यों कहती हुई माता प्रेम में अत्यन्त विकल हो गईं, परन्तु कुसमय जानकर (दुःख करने का अवसर न जानकर) उन्होंने धीरज धरा॥3॥

* पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेमु कछु जाइ न बरना॥

सब नारिन्ह मिलि भेंटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥4॥

भावार्थ:-मैना बार-बार मिलती हैं और (पार्वती के) चरणों को पकड़कर गिर पड़ती हैं। बड़ा ही प्रेम है, कुछ वर्णन नहीं किया जाता। भवानी सब स्त्रियों से मिल-भेंटकर फिर अपनी माता के हृदय से जा लिपटीं॥4॥

छन्द :

* जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।

फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं॥

जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।

सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥

भावार्थ:-पार्वतीजी माता से फिर मिलकर चलीं, सब किसी ने उन्हें योग्य आशीर्वाद दिए। पार्वतीजी फिर-फिरकर माता की ओर देखती जाती थीं। तब सखियाँ उन्हें शिवजी के पास ले गईं। महादेवजी सब याचकों को संतुष्ट कर पार्वती के साथ घर (कैलास) को चले। सब देवता प्रसन्न होकर फूलों की वर्षा करने लगे और आकाश में सुंदर नगाड़े बजाने लगे।

दोहा :

* चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।

बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥102॥

भावार्थ:-तब हिमवान्‌ अत्यन्त प्रेम से शिवजी को पहुँचाने के लिए साथ चले। वृषकेतु (शिवजी) ने बहुत तरह से उन्हें संतोष कराकर विदा किया॥102॥

चौपाई :

* तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥

आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥1॥

भावार्थ:-पर्वतराज हिमाचल तुरंत घर आए और उन्होंने सब पर्वतों और सरोवरों को बुलाया। हिमवान ने आदर, दान, विनय और बहुत सम्मानपूर्वक सबकी विदाई की॥1॥

* जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥

जगत मातु पितु संभु भवानी। तेहिं सिंगारु न कहउँ बखानी॥2॥

भावार्थ:-जब शिवजी कैलास पर्वत पर पहुँचे, तब सब देवता अपने-अपने लोकों को चले गए। (तुलसीदासजी कहते हैं कि) पार्वतीजी और शिवजी जगत के माता-पिता हैं, इसलिए मैं उनके श्रृंगार का वर्णन नहीं करता॥2॥

* करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥

हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥3॥

भावार्थ:-शिव-पार्वती विविध प्रकार के भोग-विलास करते हुए अपने गणों सहित कैलास पर रहने लगे। वे नित्य नए विहार करते थे। इस प्रकार बहुत समय बीत गया॥3॥

* जब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुरु समर जेहिं मारा॥

आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥4॥

भावार्थ:-तब छ: मुखवाले पुत्र (स्वामिकार्तिक) का जन्म हुआ, जिन्होंने (बड़े होने पर) युद्ध में तारकासुर को मारा। वेद, शास्त्र और पुराणों में स्वामिकार्तिक के जन्म की कथा प्रसिद्ध है और सारा जगत उसे जानता है॥4॥

छन्द :

* जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।

तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥

यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।

कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥

भावार्थ:-षडानन (स्वामिकार्तिक) के जन्म, कर्म, प्रताप और महान पुरुषार्थ को सारा जगत जानता है, इसलिए मैंने वृषकेतु (शिवजी) के पुत्र का चरित्र संक्षेप में ही कहा है। शिव-पार्वती के विवाह की इस कथा को जो स्त्री-पुरुष कहेंगे और गाएँगे, वे कल्याण के कार्यों और विवाहादि मंगलों में सदा सुख पाएँगे।

दोहा :

* चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु।

बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु॥103॥

भावार्थ:-गिरिजापति महादेवजी का चरित्र समुद्र के समान (अपार) है, उसका पार वेद भी नहीं पाते। तब अत्यन्त मन्दबुद्धि और गँवार तुलसीदास उसका वर्णन कैसे कर सकता है? ॥103॥

चौपाई :

* संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुखु पावा॥

बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥1॥

भावार्थ:-शिवजी के रसीले और सुहावने चरित्र को सुनकर मुनि भरद्वाजजी ने बहुत ही सुख पाया। कथा सुनने की उनकी लालसा बहुत बढ़ गई। नेत्रों में जल भर आया तथा रोमावली खड़ी हो गई॥1॥

* प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥

अहो धन्य तब जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥2॥

भावार्थ:-वे प्रेम में मुग्ध हो गए, मुख से वाणी नहीं निकलती। उनकी यह दशा देखकर ज्ञानी मुनि याज्ञवल्क्य बहुत प्रसन्न हुए (और बोले-) हे मुनीश! अहा हा! तुम्हारा जन्म धन्य है, तुमको गौरीपति शिवजी प्राणों के समान प्रिय हैं॥2॥

* सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥

बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥3॥

भावार्थ:-शिवजी के चरण कमलों में जिनकी प्रीति नहीं है, वे श्री रामचन्द्रजी को स्वप्न में भी अच्छे नहीं लगते। विश्वनाथ श्री शिवजी के चरणों में निष्कपट (विशुद्ध) प्रेम होना यही रामभक्त का लक्षण है॥3॥

* सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥

पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥4॥

भावार्थ:-शिवजी के समान रघुनाथजी (की भक्ति) का व्रत धारण करने वाला कौन है? जिन्होंने बिना ही पाप के सती जैसी स्त्री को त्याग दिया और प्रतिज्ञा करके श्री रघुनाथजी की भक्ति को दिखा दिया। हे भाई! श्री रामचन्द्रजी को शिवजी के समान और कौन प्यारा है?॥4॥

दोहा :

* प्रथमहिं मैं कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।

सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥104॥

भावार्थ:-मैंने पहले ही शिवजी का चरित्र कहकर तुम्हारा भेद समझ लिया। तुम श्री रामचन्द्रजी के पवित्र सेवक हो और समस्त दोषों से रहित हो॥104॥

चौपाई :

*मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥

सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥1॥

भावार्थ:-मैंने तुम्हारा गुण और शील जान लिया। अब मैं श्री रघुनाथजी की लीला कहता हूँ, सुनो। हे मुनि! सुनो, आज तुम्हारे मिलने से मेरे मन में जो आनंद हुआ है, वह कहा नहीं जा सकता॥1॥

*राम चरित अति अमित मुनीसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥

तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥2॥

भावार्थ:-हे मुनीश्वर! रामचरित्र अत्यन्त अपार है। सौ करोड़ शेषजी भी उसे नहीं कह सकते। तथापि जैसा मैंने सुना है, वैसा वाणी के स्वामी (प्रेरक) और हाथ में धनुष लिए हुए प्रभु श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करके कहता हूँ॥2॥

*सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी॥

जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥3॥

भावार्थ:-सरस्वतीजी कठपुतली के समान हैं और अन्तर्यामी स्वामी श्री रामचन्द्रजी (सूत पकड़कर कठपुतली को नचाने वाले) सूत्रधार हैं। अपना भक्त जानकर जिस कवि पर वे कृपा करते हैं, उसके हृदय रूपी आँगन में सरस्वती को वे नचाया करते हैं॥3॥

* प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥

परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥4॥

भावार्थ:-उन्हीं कृपालु श्री रघुनाथजी को मैं प्रणाम करता हूँ और उन्हीं के निर्मल गुणों की कथा कहता हूँ। कैलास पर्वतों में श्रेष्ठ और बहुत ही रमणीय है, जहाँ शिव-पार्वतीजी सदा निवास करते हैं॥4॥

दोहा :

* सिद्ध तपोधन जोगिजन सुर किंनर मुनिबृंद।

बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिव सुखकंद॥105॥

भावार्थ:-सिद्ध, तपस्वी, योगीगण, देवता, किन्नर और मुनियों के समूह उस पर्वत पर रहते हैं। वे सब बड़े पुण्यात्मा हैं और आनंदकन्द श्री महादेवजी की सेवा करते हैं॥105॥

चौपाई :

* हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥

तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥1॥

भावार्थ:-जो भगवान विष्णु और महादेवजी से विमुख हैं और जिनकी धर्म में प्रीति नहीं है, वे लोग स्वप्न में भी वहाँ नहीं जा सकते। उस पर्वत पर एक विशाल बरगद का पेड़ है, जो नित्य नवीन और सब काल (छहों ऋतुओं) में सुंदर रहता है॥1॥

* त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥

एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥2॥

भावार्थ:-वहाँ तीनों प्रकार की (शीतल, मंद और सुगंध) वायु बहती रहती है और उसकी छाया बड़ी ठंडी रहती है। वह शिवजी के विश्राम करने का वृक्ष है, जिसे वेदों ने गाया है। एक बार प्रभु श्री शिवजी उस वृक्ष के नीचे गए और उसे देखकर उनके हृदय में बहुत आनंद हुआ॥2॥

*निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठे सहजहिं संभु कृपाला॥

कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥3॥

भावार्थ:-अपने हाथ से बाघम्बर बिछाकर कृपालु शिवजी स्वभाव से ही (बिना किसी खास प्रयोजन के) वहाँ बैठ गए। कुंद के पुष्प, चन्द्रमा और शंख के समान उनका गौर शरीर था। बड़ी लंबी भुजाएँ थीं और वे मुनियों के से (वल्कल) वस्त्र धारण किए हुए थे॥3॥

* तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना॥

भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी॥4॥

भावार्थ:-उनके चरण नए (पूर्ण रूप से खिले हुए) लाल कमल के समान थे, नखों की ज्योति भक्तों के हृदय का अंधकार हरने वाली थी। साँप और भस्म ही उनके भूषण थे और उन त्रिपुरासुर के शत्रु शिवजी का मुख शरद (पूर्णिमा) के चन्द्रमा की शोभा को भी हरने वाला (फीकी करने वाला) था॥4॥

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बालकाण्डशिवजी की विचित्र बारात और विवाह की तैयारी


बालकाण्ड

शिवजी की विचित्र बारात और विवाह की तैयारी

दोहा :

* लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।

होहिं सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान॥91॥

भावार्थ:-सब देवता अपने भाँति-भाँति के वाहन और विमान सजाने लगे, कल्याणप्रद मंगल शकुन होने लगे और अप्सराएँ गाने लगीं॥91॥

चौपाई :

* सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥

कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥1॥

भावार्थ:-शिवजी के गण शिवजी का श्रृंगार करने लगे। जटाओं का मुकुट बनाकर उस पर साँपों का मौर सजाया गया। शिवजी ने साँपों के ही कुंडल और कंकण पहने, शरीर पर विभूति रमायी और वस्त्र की जगह बाघम्बर लपेट लिया॥1॥

* ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥

गरल कंठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥2॥

भावार्थ:-शिवजी के सुंदर मस्तक पर चन्द्रमा, सिर पर गंगाजी, तीन नेत्र, साँपों का जनेऊ, गले में विष और छाती पर नरमुण्डों की माला थी। इस प्रकार उनका वेष अशुभ होने पर भी वे कल्याण के धाम और कृपालु हैं॥2॥

* कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥

देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥3॥

भावार्थ:-एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू सुशोभित है। शिवजी बैल पर चढ़कर चले। बाजे बज रहे हैं। शिवजी को देखकर देवांगनाएँ मुस्कुरा रही हैं (और कहती हैं कि) इस वर के योग्य दुलहिन संसार में नहीं मिलेगी॥3॥

* बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता। चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता॥

सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥4॥

भावार्थ:-विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं के समूह अपने-अपने वाहनों (सवारियों) पर चढ़कर बारात में चले। देवताओं का समाज सब प्रकार से अनुपम (परम सुंदर) था, पर दूल्हे के योग्य बारात न थी॥4॥

दोहा :

* बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज।

बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज॥92॥

भावार्थ:-तब विष्णु भगवान ने सब दिक्पालों को बुलाकर हँसकर ऐसा कहा- सब लोग अपने-अपने दल समेत अलग-अलग होकर चलो॥92॥

चौपाई :

* बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु पर पुर जाई॥

बिष्नु बचन सुनि सुर मुसुकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने॥1॥

भावार्थ:-हे भाई! हम लोगों की यह बारात वर के योग्य नहीं है। क्या पराए नगर में जाकर हँसी कराओगे? विष्णु भगवान की बात सुनकर देवता मुस्कुराए और वे अपनी-अपनी सेना सहित अलग हो गए॥1॥

* मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं॥

अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे॥2॥

भावार्थ:-महादेवजी (यह देखकर) मन-ही-मन मुस्कुराते हैं कि विष्णु भगवान के व्यंग्य-वचन (दिल्लगी) नहीं छूटते! अपने प्यारे (विष्णु भगवान) के इन अति प्रिय वचनों को सुनकर शिवजी ने भी भृंगी को भेजकर अपने सब गणों को बुलवा लिया॥2॥

* सिव अनुसासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए॥

नाना बाहन नाना बेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा॥3॥

भावार्थ:-शिवजी की आज्ञा सुनते ही सब चले आए और उन्होंने स्वामी के चरण कमलों में सिर नवाया। तरह-तरह की सवारियों और तरह-तरह के वेष वाले अपने समाज को देखकर शिवजी हँसे॥3॥

* कोउ मुख हीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥

बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥4॥

भावार्थ:-कोई बिना मुख का है, किसी के बहुत से मुख हैं, कोई बिना हाथ-पैर का है तो किसी के कई हाथ-पैर हैं। किसी के बहुत आँखें हैं तो किसी के एक भी आँख नहीं है। कोई बहुत मोटा-ताजा है, तो कोई बहुत ही दुबला-पतला है॥4॥

छंद :

* तन कीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें।

भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें॥

खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै।

बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै॥

भावार्थ:-कोई बहुत दुबला, कोई बहुत मोटा, कोई पवित्र और कोई अपवित्र वेष धारण किए हुए है। भयंकर गहने पहने हाथ में कपाल लिए हैं और सब के सब शरीर में ताजा खून लपेटे हुए हैं। गधे, कुत्ते, सूअर और सियार के से उनके मुख हैं। गणों के अनगिनत वेषों को कौन गिने? बहुत प्रकार के प्रेत, पिशाच और योगिनियों की जमाते हैं। उनका वर्णन करते नहीं बनता।

सोरठा :

* नाचह�

बालकाण्ड

शिवजी की विचित्र बारात और विवाह की तैयारी

दोहा :

* लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।

होहिं सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान॥91॥

भावार्थ:-सब देवता अपने भाँति-भाँति के वाहन और विमान सजाने लगे, कल्याणप्रद मंगल शकुन होने लगे और अप्सराएँ गाने लगीं॥91॥

चौपाई :

* सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥

कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥1॥

भावार्थ:-शिवजी के गण शिवजी का श्रृंगार करने लगे। जटाओं का मुकुट बनाकर उस पर साँपों का मौर सजाया गया। शिवजी ने साँपों के ही कुंडल और कंकण पहने, शरीर पर विभूति रमायी और वस्त्र की जगह बाघम्बर लपेट लिया॥1॥

* ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥

गरल कंठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥2॥

भावार्थ:-शिवजी के सुंदर मस्तक पर चन्द्रमा, सिर पर गंगाजी, तीन नेत्र, साँपों का जनेऊ, गले में विष और छाती पर नरमुण्डों की माला थी। इस प्रकार उनका वेष अशुभ होने पर भी वे कल्याण के धाम और कृपालु हैं॥2॥

* कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥

देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥3॥

भावार्थ:-एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू सुशोभित है। शिवजी बैल पर चढ़कर चले। बाजे बज रहे हैं। शिवजी को देखकर देवांगनाएँ मुस्कुरा रही हैं (और कहती हैं कि) इस वर के योग्य दुलहिन संसार में नहीं मिलेगी॥3॥

* बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता। चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता॥

सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥4॥

भावार्थ:-विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं के समूह अपने-अपने वाहनों (सवारियों) पर चढ़कर बारात में चले। देवताओं का समाज सब प्रकार से अनुपम (परम सुंदर) था, पर दूल्हे के योग्य बारात न थी॥4॥

दोहा :

* बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज।

बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज॥92॥

भावार्थ:-तब विष्णु भगवान ने सब दिक्पालों को बुलाकर हँसकर ऐसा कहा- सब लोग अपने-अपने दल समेत अलग-अलग होकर चलो॥92॥

चौपाई :

* बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु पर पुर जाई॥

बिष्नु बचन सुनि सुर मुसुकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने॥1॥

भावार्थ:-हे भाई! हम लोगों की यह बारात वर के योग्य नहीं है। क्या पराए नगर में जाकर हँसी कराओगे? विष्णु भगवान की बात सुनकर देवता मुस्कुराए और वे अपनी-अपनी सेना सहित अलग हो गए॥1॥

* मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं॥

अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे॥2॥

भावार्थ:-महादेवजी (यह देखकर) मन-ही-मन मुस्कुराते हैं कि विष्णु भगवान के व्यंग्य-वचन (दिल्लगी) नहीं छूटते! अपने प्यारे (विष्णु भगवान) के इन अति प्रिय वचनों को सुनकर शिवजी ने भी भृंगी को भेजकर अपने सब गणों को बुलवा लिया॥2॥

* सिव अनुसासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए॥

नाना बाहन नाना बेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा॥3॥

भावार्थ:-शिवजी की आज्ञा सुनते ही सब चले आए और उन्होंने स्वामी के चरण कमलों में सिर नवाया। तरह-तरह की सवारियों और तरह-तरह के वेष वाले अपने समाज को देखकर शिवजी हँसे॥3॥

* कोउ मुख हीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥

बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥4॥

भावार्थ:-कोई बिना मुख का है, किसी के बहुत से मुख हैं, कोई बिना हाथ-पैर का है तो किसी के कई हाथ-पैर हैं। किसी के बहुत आँखें हैं तो किसी के एक भी आँख नहीं है। कोई बहुत मोटा-ताजा है, तो कोई बहुत ही दुबला-पतला है॥4॥

छंद :

* तन कीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें।

भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें॥

खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै।

बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै॥

भावार्थ:-कोई बहुत दुबला, कोई बहुत मोटा, कोई पवित्र और कोई अपवित्र वेष धारण किए हुए है। भयंकर गहने पहने हाथ में कपाल लिए हैं और सब के सब शरीर में ताजा खून लपेटे हुए हैं। गधे, कुत्ते, सूअर और सियार के से उनके मुख हैं। गणों के अनगिनत वेषों को कौन गिने? बहुत प्रकार के प्रेत, पिशाच और योगिनियों की जमाते हैं। उनका वर्णन करते नहीं बनता।

सोरठा :

* नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब।

देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि॥93॥

भावार्थ:-भूत-प्रेत नाचते और गाते हैं, वे सब बड़े मौजी हैं। देखने में बहुत ही बेढंगे जान पड़ते हैं और बड़े ही विचित्र ढंग से बोलते हैं॥93॥

चौपाई :

* जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥

इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना॥1॥

भावार्थ:-जैसा दूल्हा है, अब वैसी ही बारात बन गई है। मार्ग में चलते हुए भाँति-भाँति के कौतुक (तमाशे) होते जाते हैं। इधर हिमाचल ने ऐसा विचित्र मण्डप बनाया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता॥1॥

* सैल सकल जहँ लगि जग माहीं। लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं॥

बन सागर सब नदी तलावा। हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा॥2॥

भावार्थ:-जगत में जितने छोटे-बड़े पर्वत थे, जिनका वर्णन करके पार नहीं मिलता तथा जितने वन, समुद्र, नदियाँ और तालाब थे, हिमाचल ने सबको नेवता भेजा॥2॥

* कामरूप सुंदर तन धारी। सहित समाज सहित बर नारी॥

गए सकल तुहिमाचल गेहा। गावहिं मंगल सहित सनेहा॥3॥

भावार्थ:-वे सब अपनी इच्छानुसार रूप धारण करने वाले सुंदर शरीर धारण कर सुंदरी स्त्रियों और समाजों के साथ हिमाचल के घर गए। सभी स्नेह सहित मंगल गीत गाते हैं॥3॥

* प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए॥

पुर सोभा अवलोकि सुहाई। लागइ लघु बिरंचि निपुनाई॥4॥

भावार्थ:-हिमाचल ने पहले ही से बहुत से घर सजवा रखे थे। यथायोग्य उन-उन स्थानों में सब लोग उतर गए। नगर की सुंदर शोभा देखकर ब्रह्मा की रचना चातुरी भी तुच्छ लगती थी॥4॥

छन्द :

* लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही।

बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही॥

मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं।

बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं॥

भावार्थ:-नगर की शोभा देखकर ब्रह्मा की निपुणता सचमुच तुच्छ लगती है। वन, बाग, कुएँ, तालाब, नदियाँ सभी सुंदर हैं, उनका वर्णन कौन कर सकता है? घर-घर बहुत से मंगल सूचक तोरण और ध्वजा-पताकाएँ सुशोभित हो रही हैं। वहाँ के सुंदर और चतुर स्त्री-पुरुषों की छबि देखकर मुनियों के भी मन मोहित हो जाते हैं॥

दोहा :

* जगदंबा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ।

रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ॥94॥

भावार्थ:-जिस नगर में स्वयं जगदम्बा ने अवतार लिया, क्या उसका वर्णन हो सकता है? वहाँ ऋद्धि, सिद्धि, सम्पत्ति और सुख नित-नए बढ़ते जाते हैं॥94॥

चौपाई :

* नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभरु सोभा अधिकाई॥

करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना॥1॥

भावार्थ:-बारात को नगर के निकट आई सुनकर नगर में चहल-पहल मच गई, जिससे उसकी शोभा बढ़ गई। अगवानी करने वाले लोग बनाव-श्रृंगार करके तथा नाना प्रकार की सवारियों को सजाकर आदर सहित बारात को लेने चले॥1॥

* हियँ हरषे सुर सेन निहारी। हरिहि देखि अति भए सुखारी॥

सिव समाज जब देखन लागे। बिडरि चले बाहन सब भागे॥2॥

भावार्थ:-देवताओं के समाज को देखकर सब मन में प्रसन्न हुए और विष्णु भगवान को देखकर तो बहुत ही सुखी हुए, किन्तु जब शिवजी के दल को देखने लगे तब तो उनके सब वाहन (सवारियों के हाथी, घोड़े, रथ के बैल आदि) डरकर भाग चले॥2॥

* धरि धीरजु तहँ रहे सयाने। बालक सब लै जीव पराने॥

गएँ भवन पूछहिं पितु माता। कहहिं बचन भय कंपित गाता॥3॥

भावार्थ:-कुछ बड़ी उम्र के समझदार लोग धीरज धरकर वहाँ डटे रहे। लड़के तो सब अपने प्राण लेकर भागे। घर पहुँचने पर जब माता-पिता पूछते हैं, तब वे भय से काँपते हुए शरीर से ऐसा वचन कहते हैं॥3॥

* कहिअ काह कहि जाइ न बाता। जम कर धार किधौं बरिआता॥

बरु बौराह बसहँ असवारा। ब्याल कपाल बिभूषन छारा॥4॥

भावार्थ:-क्या कहें, कोई बात कही नहीं जाती। यह बारात है या यमराज की सेना? दूल्हा पागल है और बैल पर सवार है। साँप, कपाल और राख ही उसके गहने हैं॥4॥

छन्द :

* तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा।

सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा॥

जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही।

देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही॥

भावार्थ:-दूल्हे के शरीर पर राख लगी है, साँप और कपाल के गहने हैं, वह नंगा, जटाधारी और भयंकर है। उसके साथ भयानक मुखवाले भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनियाँ और राक्षस हैं, जो बारात को देखकर जीता बचेगा, सचमुच उसके बड़े ही पुण्य हैं और वही पार्वती का विवाह देखेगा। लड़कों ने घर-घर यही बात कही।

दोहा :

* समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं।

बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं॥95॥

भावार्थ:-महेश्वर (शिवजी) का समाज समझकर सब लड़कों के माता-पिता मुस्कुराते हैं। उन्होंने बहुत तरह से लड़कों को समझाया कि निडर हो जाओ, डर की कोई बात नहीं है॥95॥

चौपाई :

* लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए॥

मैनाँ सुभ आरती सँवारी। संग सुमंगल गावहिं नारी॥1॥

भावार्थ:-अगवान लोग बारात को लिवा लाए, उन्होंने सबको सुंदर जनवासे ठहरने को दिए। मैना (पार्वतीजी की माता) ने शुभ आरती सजाई और उनके साथ की स्त्रियाँ उत्तम मंगलगीत गाने लगीं॥1॥

* कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी॥

बिकट बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा॥2॥

भावार्थ:-सुंदर हाथों में सोने का थाल शोभित है, इस प्रकार मैना हर्ष के साथ शिवजी का परछन करने चलीं। जब महादेवजी को भयानक वेष में देखा तब तो स्त्रियों के मन में बड़ा भारी भय उत्पन्न हो गया॥2॥

* भागि भवन पैठीं अति त्रासा। गए महेसु जहाँ जनवासा॥

मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी। लीन्ही बोली गिरीसकुमारी॥3॥

भावार्थ:-बहुत ही डर के मारे भागकर वे घर में घुस गईं और शिवजी जहाँ जनवासा था, वहाँ चले गए। मैना के हृदय में बड़ा दुःख हुआ, उन्होंने पार्वतीजी को अपने पास बुला लिया॥3॥

* अधिक सनेहँ गोद बैठारी। स्याम सरोज नयन भरे बारी॥

जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा। तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा॥4॥

भावार्थ:-और अत्यन्त स्नेह से गोद में बैठाकर अपने नीलकमल के समान नेत्रों में आँसू भरकर कहा- जिस विधाता ने तुमको ऐसा सुंदर रूप दिया, उस मूर्ख ने तुम्हारे दूल्हे को बावला कैसे बनाया?॥4॥

छन्द :

* कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई।

जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई॥

तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं।

घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं॥

भावार्थ:-जिस विधाता ने तुमको सुंदरता दी, उसने तुम्हारे लिए वर बावला कैसे बनाया? जो फल कल्पवृक्ष में लगना चाहिए, वह जबर्दस्ती बबूल में लग रहा है। मैं तुम्हें लेकर पहाड़ से गिर पड़ूँगी, आग में जल जाऊँगी या समुद्र में कूद पड़ूँगी। चाहे घर उजड़ जाए और संसार भर में अपकीर्ति फैल जाए, पर जीते जी मैं इस बावले वर से तुम्हारा विवाह न करूँगी।

दोहा :

* भईं बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि।

करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि॥96॥।

भावार्थ:-हिमाचल की स्त्री (मैना) को दुःखी देखकर सारी स्त्रियाँ व्याकुल हो गईं। मैना अपनी कन्या के स्नेह को याद करके विलाप करती, रोती और कहती थीं-॥96॥

चौपाई :

* नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा॥

अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लागि तपु कीन्हा॥1॥

भावार्थ:-मैंने नारद का क्या बिगाड़ा था, जिन्होंने मेरा बसता हुआ घर उजाड़ दिया और जिन्होंने पार्वती को ऐसा उपदेश दिया कि जिससे उसने बावले वर के लिए तप किया॥1॥

* साचेहुँ उन्ह कें मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया॥

पर घर घालक लाज न भीरा। बाँझ कि जान प्रसव कै पीरा॥2॥

भावार्थ:-सचमुच उनके न किसी का मोह है, न माया, न उनके धन है, न घर है और न स्त्री ही है, वे सबसे उदासीन हैं। इसी से वे दूसरे का घर उजाड़ने वाले हैं। उन्हें न किसी की लाज है, न डर है। भला, बाँझ स्त्री प्रसव की पीड़ा को क्या जाने॥2॥

* जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी॥

अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरइ जो रचइ बिधाता॥3॥

भावार्थ:-माता को विकल देखकर पार्वतीजी विवेकयुक्त कोमल वाणी बोलीं- हे माता! जो विधाता रच देते हैं, वह टलता नहीं, ऐसा विचार कर तुम सोच मत करो!॥3॥

* करम लिखा जौं बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइअ काहू॥

तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका॥4॥

भावार्थ:-जो मेरे भाग्य में बावला ही पति लिखा है, तो किसी को क्यों दोष लगाया जाए? हे माता! क्या विधाता के अंक तुमसे मिट सकते हैं? वृथा कलंक का टीका मत लो॥4॥

छन्द :

* जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं।

दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं॥

सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं।

बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं॥

भावार्थ:-हे माता! कलंक मत लो, रोना छोड़ो, यह अवसर विषाद करने का नहीं है। मेरे भाग्य में जो दुःख-सुख लिखा है, उसे मैं जहाँ जाऊँगी, वहीं पाऊँगी! पार्वतीजी के ऐसे विनय भरे कोमल वचन सुनकर सारी स्त्रियाँ सोच करने लगीं और भाँति-भाँति से विधाता को दोष देकर आँखों से आँसू बहाने लगीं।

दोहा :

* तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत।

समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत॥97॥

भावार्थ:-इस समाचार को सुनते ही हिमाचल उसी समय नारदजी और सप्त ऋषियों को साथ लेकर अपने घर गए॥97॥

चौपाई :

* तब नारद सबही समुझावा। पूरुब कथा प्रसंगु सुनावा॥

मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तव सुता भवानी॥1॥

भावार्थ:-तब नारदजी ने पूर्वजन्म की कथा सुनाकर सबको समझाया (और कहा) कि हे मैना! तुम मेरी सच्ची बात सुनो, तुम्हारी यह लड़की साक्षात जगज्जनी भवानी है॥1॥

* अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि। सदा संभु अरधंग निवासिनि॥

जग संभव पालन लय कारिनि। निज इच्छा लीला बपु धारिनि॥2॥

भावार्थ:-ये अजन्मा, अनादि और अविनाशिनी शक्ति हैं। सदा शिवजी के अर्द्धांग में रहती हैं। ये जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार करने वाली हैं और अपनी इच्छा से ही लीला शरीर धारण करती हैं॥2॥

* जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई। नामु सती सुंदर तनु पाई॥

तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं। कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं॥3॥

भावार्थ:-पहले ये दक्ष के घर जाकर जन्मी थीं, तब इनका सती नाम था, बहुत सुंदर शरीर पाया था। वहाँ भी सती शंकरजी से ही ब्याही गई थीं। यह कथा सारे जगत में प्रसिद्ध है॥3॥

* एक बार आवत सिव संगा। देखेउ रघुकुल कमल पतंगा॥

भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा। भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा॥4॥

भावार्थ:-एक बार इन्होंने शिवजी के साथ आते हुए (राह में) रघुकुल रूपी कमल के सूर्य श्री रामचन्द्रजी को देखा, तब इन्हें मोह हो गया और इन्होंने शिवजी का कहना न मानकर भ्रमवश सीताजी का वेष धारण कर लिया॥4॥

छन्द :

* सिय बेषु सतीं जो कीन्ह तेहिं अपराध संकर परिहरीं।

हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं॥

अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया।

अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकरप्रिया॥

भावार्थ:-सतीजी ने जो सीता का वेष धारण किया, उसी अपराध के कारण शंकरजी ने उनको त्याग दिया। फिर शिवजी के वियोग में ये अपने पिता के यज्ञ में जाकर वहीं योगाग्नि से भस्म हो गईं। अब इन्होंने तुम्हारे घर जन्म लेकर अपने पति के लिए कठिन तप किया है ऐसा जानकर संदेह छोड़ दो, पार्वतीजी तो सदा ही शिवजी की प्रिया (अर्द्धांगिनी) हैं।

दोहा :

* सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद।

छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद॥98॥

भावार्थ:-तब नारद के वचन सुनकर सबका विषाद मिट गया और क्षणभर में यह समाचार सारे नगर में घर-घर फैल गया॥98॥

चौपाई :

* तब मयना हिमवंतु अनंदे। पुनि पुनि पारबती पद बंदे॥

नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥1॥

भावार्थ:-तब मैना और हिमवान आनंद में मग्न हो गए और उन्होंने बार-बार पार्वती के चरणों की वंदना की। स्त्री, पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध नगर के सभी लोग बहुत प्रसन्न हुए॥1॥

* लगे होन पुर मंगल गाना। सजे सबहिं हाटक घट नाना॥

भाँति अनेक भई जेवनारा। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥2॥

भावार्थ:-नगर में मंगल गीत गाए जाने लगे और सबने भाँति-भाँति के सुवर्ण के कलश सजाए। पाक शास्त्र में जैसी रीति है, उसके अनुसार अनेक भाँति की ज्योनार हुई (रसोई बनी)॥2॥

*सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी॥

सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरंचि देव सब जाती॥3॥

भावार्थ:-जिस घर में स्वयं माता भवानी रहती हों, वहाँ की ज्योनार (भोजन सामग्री) का वर्णन कैसे किया जा सकता है? हिमाचल ने आदरपूर्वक सब बारातियों, विष्णु, ब्रह्मा और सब जाति के देवताओं को बुलवाया॥3॥

* बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन सुआरा॥

नारिबृंद सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी॥4॥

भावार्थ:-भोजन (करने वालों) की बहुत सी पंगतें बैठीं। चतुर रसोइए परोसने लगे। स्त्रियों की मंडलियाँ देवताओं को भोजन करते जानकर कोमल वाणी से गालियाँ देने लगीं॥4॥

छन्द :

* गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं।

भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं॥

जेवँत जो बढ्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो।

अचवाँइ दीन्हें पान गवने बास जहँ जाको रह्यो॥

भावार्थ:-सब सुंदरी स्त्रियाँ मीठे स्वर में गालियाँ देने लगीं और व्यंग्य भरे वचन सुनाने लगीं। देवगण विनोद सुनकर बहुत सुख अनुभव करते हैं, इसलिए भोजन करने में बड़ी देर लगा रहे हैं। भोजन के समय जो आनंद बढ़ा वह करोड़ों मुँह से भी नहीं कहा जा सकता। (भोजन कर चुकने पर) सबके हाथ-मुँह धुलवाकर पान दिए गए। फिर सब लोग, जो जहाँ ठहरे थे, वहाँ चले गए।

दोहा :

*बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ।

समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ॥99॥

भावार्थ:-फिर मुनियों ने लौटकर हिमवान्‌ को लगन (लग्न पत्रिका) सुनाई और विवाह का समय देखकर देवताओं को बुला भेजा॥99॥

चौपाई :

* बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे॥

बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमंगल गावहिं नारी॥1॥

भावार्थ:-सब देवताओं को आदर सहित बुलवा लिया और सबको यथायोग्य आसन दिए। वेद की रीति से वेदी सजाई गई और स्त्रियाँ सुंदर श्रेष्ठ मंगल गीत गाने लगीं॥1॥

* सिंघासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरंचि बनावा॥

बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई॥2॥

भावार्थ:-वेदिका पर एक अत्यन्त सुंदर दिव्य सिंहासन था, जिस (की सुंदरता) का वर्णन नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह स्वयं ब्रह्माजी का बनाया हुआ था। ब्राह्मणों को सिर नवाकर और हृदय में अपने स्वामी श्री रघुनाथजी का स्मरण करके शिवजी उस सिंहासन पर बैठ गए॥2॥

* बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाईं। करि सिंगारु सखीं लै आईं॥

देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है॥3॥

भावार्थ:-फिर मुनीश्वरों ने पार्वतीजी को बुलाया। सखियाँ श्रृंगार करके उन्हें ले आईं। पार्वतीजी के रूप को देखते ही सब देवता मोहित हो गए। संसार में ऐसा कवि कौन है, जो उस सुंदरता का वर्णन कर सके?॥3॥

* जगदंबिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा॥

सुंदरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥4॥

भावार्थ:-पार्वतीजी को जगदम्बा और शिवजी की पत्नी समझकर देवताओं ने मन ही मन प्रणाम किया। भवानीजी सुंदरता की सीमा हैं। करोड़ों मुखों से भी उनकी शोभा नहीं कही जा सकती॥4॥

छन्द :

* कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा।

सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसीकहा॥

छबिखानि मातु भवानि गवनीं मध्य मंडप सिव जहाँ।

अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ॥

भावार्थ:-जगज्जननी पार्वतीजी की महान शोभा का वर्णन करोड़ों मुखों से भी करते नहीं बनता। वेद, शेषजी और सरस्वतीजी तक उसे कहते हुए सकुचा जाते हैं, तब मंदबुद्धि तुलसी किस गिनती में है? सुंदरता और शोभा की खान माता भवानी मंडप के बीच में, जहाँ शिवजी थे, वहाँ गईं। वे संकोच के मारे पति (शिवजी) के चरणकमलों को देख नहीं सकतीं, परन्तु उनका मन रूपी भौंरा तो वहीं (रसपान कर रहा) था।

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बालकाण्डदेवताओं का शिवजी से ब्याह के लिए प्रार्थना करना, सप्तर्षियों का पार्वती के पास जाना


बालकाण्ड

देवताओं का शिवजी से ब्याह के लिए प्रार्थना करना, सप्तर्षियों का पार्वती के पास जाना

दोहा :

*सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु।

निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु॥88॥

भावार्थ:-हे शंकर! सब देवताओं के मन में ऐसा परम उत्साह है कि हे नाथ! वे अपनी आँखों से आपका विवाह देखना चाहते हैं॥88॥

चौपाई :

* यह उत्सव देखिअ भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन॥

कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिन्धु यह अति भल कीन्हा॥1॥

भावार्थ:-हे कामदेव के मद को चूर करने वाले! आप ऐसा कुछ कीजिए, जिससे सब लोग इस उत्सव को नेत्र भरकर देखें। हे कृपा के सागर! कामदेव को भस्म करके आपने रति को जो वरदान दिया, सो बहुत ही अच्छा किया॥1॥

* सासति करि पुनि करहिं पसाऊ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ॥

पारबतीं तपु कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अंगीकारा॥2॥

भावार्थ:-हे नाथ! श्रेष्ठ स्वामियों का यह सहज स्वभाव ही है कि वे पहले दण्ड देकर फिर कृपा किया करते हैं। पार्वती ने अपार तप किया है, अब उन्हें अंगीकार कीजिए॥2॥

* सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी॥

तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साईं॥3॥

भावार्थ:-ब्रह्माजी की प्रार्थना सुनकर और प्रभु श्री रामचन्द्रजी के वचनों को याद करके शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक कहा- 'ऐसा ही हो।' तब देवताओं ने नगाड़े बजाए और फूलों की वर्षा करके 'जय हो! देवताओं के स्वामी जय हो' ऐसा कहने लगे॥3॥

* अवसरु जानि सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए॥

प्रथम गए जहँ रहीं भवानी। बोले मधुर बचन छल सानी॥4॥

भावार्थ:-उचित अवसर जानकर सप्तर्षि आए और ब्रह्माजी ने तुरंत ही उन्हें हिमाचल के घर भेज दिया। वे पहले वहाँ गए जहाँ पार्वतीजी थीं और उनसे छल से भरे मीठे (विनोदयुक्त, आनंद पहुँचाने वाले) वचन बोले-॥4॥

दोहा :

* कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस॥

अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस॥89॥

भावार्थ:-नारदजी के उपदेश से तुमने उस समय हमारी बात नहीं सुनी। अब तो तुम्हारा प्रण झूठा हो गया, क्योंकि महादेवजी ने काम को ही भस्म कर डाला॥89॥


मासपारायण, तीसरा विश्राम

चौपाई :

* सुनि बोलीं मुसुकाइ भवानी। उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी॥

तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि संभु रहे सबिकारा॥1॥

भावार्थ:-यह सुनकर पार्वतीजी मुस्कुराकर बोलीं- हे विज्ञानी मुनिवरों! आपने उचित ही कहा। आपकी समझ में शिवजी ने कामदेव को अब जलाया है, अब तक तो वे विकारयुक्त (कामी) ही रहे!॥1॥

* हमरें जान सदासिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी॥

जौं मैं सिव सेये अस जानी। प्रीति समेत कर्म मन बानी॥2॥

भावार्थ:-किन्तु हमारी समझ से तो शिवजी सदा से ही योगी, अजन्मे, अनिन्द्य, कामरहित और भोगहीन हैं और यदि मैंने शिवजी को ऐसा समझकर ही मन, वचन और कर्म से प्रेम सहित उनकी सेवा की है॥2॥

* तौ हमार पन सुनहु मुनीसा। करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा॥

तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा। सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा॥3॥

भावार्थ:-तो हे मुनीश्वरो! सुनिए, वे कृपानिधान भगवान मेरी प्रतिज्ञा को सत्य करेंगे। आपने जो यह कहा कि शिवजी ने कामदेव को भस्म कर दिया, यही आपका बड़ा भारी अविवेक है॥3॥

* तात अनल कर सहज सुभाऊ। हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ॥

गएँ समीप सो अवसि नसाई। असि मन्मथ महेस की नाई॥4॥

भावार्थ:-हे तात! अग्नि का तो यह सहज स्वभाव ही है कि पाला उसके समीप कभी जा ही नहीं सकता और जाने पर वह अवश्य नष्ट हो जाएगा। महादेवजी और कामदेव के संबंध में भी यही न्याय (बात) समझना चाहिए॥4॥

दोहा :

* हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास।

चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास॥90॥

भावार्थ:-पार्वती के वचन सुनकर और उनका प्रेम तथा विश्वास देखकर मुनि हृदय में बड़े प्रसन्न हुए। वे भवानी को सिर नवाकर चल दिए और हिमाचल के पास पहुँचे॥90॥

चौपाई :

* सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा॥

बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना॥1॥

भावार्थ:-उन्होंने पर्वतराज हिमाचल को सब हाल सुनाया। कामदेव का भस्म होना सुनकर हिमाचल बहुत दुःखी हुए। फिर मुनियों ने रति के वरदान की बात कही, उसे सुनकर हिमवान्‌ ने बहुत सुख माना॥1॥

* हृदयँ बिचारि संभु प्रभुताई। सादर मुनिबर लिए बोलाई।

सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई। बेगि बेदबिधि लगन धराई॥2॥

भावार्थ:-शिवजी के प्रभाव को मन में विचार कर हिमाचल ने श्रेष्ठ मुनियों को आदरपूर्वक बुला लिया और उनसे शुभ दिन, शुभ नक्षत्र और शुभ घड़ी शोधवाकर वेद की विधि के अनुसार शीघ्र ही लग्न निश्चय कराकर लिखवा लिया॥2॥

* पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही। गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही॥

जाइ बिधिहि तिन्ह दीन्हि सो पाती। बाचत प्रीति न हृदयँ समाती॥3॥

भावार्थ:-फिर हिमाचल ने वह लग्नपत्रिका सप्तर्षियों को दे दी और चरण पकड़कर उनकी विनती की। उन्होंने जाकर वह लग्न पत्रिका ब्रह्माजी को दी। उसको पढ़ते समय उनके हृदय में प्रेम समाता न था॥3॥

* लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई॥

सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे। मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे॥4॥

भावार्थ:-ब्रह्माजी ने लग्न पढ़कर सबको सुनाया, उसे सुनकर सब मुनि और देवताओं का सारा समाज हर्षित हो गया। आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी, बाजे बजने लगे और दसों दिशाओं में मंगल कलश सजा दिए गए॥4॥

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बालकाण्डरति को वरदान


बालकाण्ड

रति को वरदान

दोहा :

* अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु।

बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु॥87॥

भावार्थ:-हे रति! अब से तेरे स्वामी का नाम अनंग होगा। वह बिना ही शरीर के सबको व्यापेगा। अब तू अपने पति से मिलने की बात सुन॥87॥

चौपाई :

* जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा॥

कृष्न तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा॥1॥

भावार्थ:-जब पृथ्वी के बड़े भारी भार को उतारने के लिए यदुवंश में श्री कृष्ण का अवतार होगा, तब तेरा पति उनके पुत्र (प्रद्युम्न) के रूप में उत्पन्न होगा। मेरा यह वचन अन्यथा नहीं होगा॥1॥

* रति गवनी सुनि संकर बानी। कथा अपर अब कहउँ बखानी॥

देवन्ह समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए॥2॥

भावार्थ:-शिवजी के वचन सुनकर रति चली गई। अब दूसरी कथा बखानकर (विस्तार से) कहता हूँ। ब्रह्मादि देवताओं ने ये सब समाचार सुने तो वे वैकुण्ठ को चले॥2॥

* सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता। गए जहाँ सिव कृपानिकेता॥

पृथक-पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा। भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा॥3॥

भावार्थ:-फिर वहाँ से विष्णु और ब्रह्मा सहित सब देवता वहाँ गए, जहाँ कृपा के धाम शिवजी थे। उन सबने शिवजी की अलग-अलग स्तुति की, तब शशिभूषण शिवजी प्रसन्न हो गए॥3॥

* बोले कृपासिंधु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू॥

कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी। तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी॥4॥

भावार्थ:-कृपा के समुद्र शिवजी बोले- हे देवताओं! कहिए, आप किसलिए आए हैं? ब्रह्माजी ने कहा- हे प्रभो! आप अन्तर्यामी हैं, तथापि हे स्वामी! भक्तिवश मैं आपसे विनती करता हूँ॥4॥

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बालकाण्डसप्तर्षियों की परीक्षा में पार्वतीजी का महत्व


बालकाण्ड

सप्तर्षियों की परीक्षा में पार्वतीजी का महत्व

चौपाई :

* रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी। मूरतिमंत तपस्या जैसी॥

बोले मुनि सुनु सैलकुमारी। करहु कवन कारन तपु भारी॥1॥

भावार्थ:-ऋषियों ने (वहाँ जाकर) पार्वती को कैसी देखा, मानो मूर्तिमान्‌ तपस्या ही हो। मुनि बोले- हे शैलकुमारी! सुनो, तुम किसलिए इतना कठोर तप कर रही हो?॥1॥

*केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू। हम सन सत्य मरमु किन कहहू॥

कहत बचन मनु अति सकुचाई। हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई॥2॥

भावार्थ:-तुम किसकी आराधना करती हो और क्या चाहती हो? हमसे अपना सच्चा भेद क्यों नहीं कहतीं? (पार्वती ने कहा-) बात कहते मन बहुत सकुचाता है। आप लोग मेरी मूर्खता सुनकर हँसेंगे॥2॥

* मनु हठ परा न सुनइ सिखावा। चहत बारि पर भीति उठावा॥

नारद कहा सत्य सोइ जाना। बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना॥3॥

भावार्थ:-मन ने हठ पकड़ लिया है, वह उपदेश नहीं सुनता और जल पर दीवाल उठाना चाहता है। नारदजी ने जो कह दिया उसे सत्य जानकर मैं बिना ही पाँख के उड़ना चाहती हूँ॥3॥

* देखहु मुनि अबिबेकु हमारा। चाहिअ सदा सिवहि भरतारा॥4॥

भावार्थ:-हे मुनियों! आप मेरा अज्ञान तो देखिए कि मैं सदा शिवजी को ही पति बनाना चाहती हूँ॥4॥

दोहा :

* सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसंभव तव देह।

नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह॥78॥

भावार्थ:-पार्वतीजी की बात सुनते ही ऋषि लोग हँस पड़े और बोले- तुम्हारा शरीर पर्वत से ही तो उत्पन्न हुआ है! भला, कहो तो नारद का उपदेश सुनकर आज तक किसका घर बसा है?॥78॥

चौपाई :

* दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई। तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई॥

चित्रकेतु कर घरु उन घाला। कनककसिपु कर पुनि अस हाला॥1॥

भावार्थ:-उन्होंने जाकर दक्ष के पुत्रों को उपदेश दिया था, जिससे उन्होंने फिर लौटकर घर का मुँह भी नहीं देखा। चित्रकेतु के घर को नारद ने ही चौपट किया। फिर यही हाल हिरण्यकशिपु का हुआ॥1॥

* नारद सिख जे सुनहिं नर नारी। अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी॥

मन कपटी तन सज्जन चीन्हा। आपु सरिस सबही चह कीन्हा॥2॥

भावार्थ:-जो स्त्री-पुरुष नारद की सीख सुनते हैं, वे घर-बार छोड़कर अवश्य ही भिखारी हो जाते हैं। उनका मन तो कपटी है, शरीर पर सज्जनों के चिह्न हैं। वे सभी को अपने समान बनाना चाहते हैं॥2॥

* तेहि कें बचन मानि बिस्वासा। तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा॥

निर्गुन निलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह दिगंबर ब्याली॥3॥

भावार्थ:-उनके वचनों पर विश्वास मानकर तुम ऐसा पति चाहती हो जो स्वभाव से ही उदासीन, गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेषवाला, नर-कपालों की माला पहनने वाला, कुलहीन, बिना घर-बार का, नंगा और शरीर पर साँपों को लपेटे रखने वाला है॥3॥

* कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ। भल भूलिहु ठग के बौराएँ॥

पंच कहें सिवँ सती बिबाही। पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही॥4॥

भावार्थ:-ऐसे वर के मिलने से कहो, तुम्हें क्या सुख होगा? तुम उस ठग (नारद) के बहकावे में आकर खूब भूलीं। पहले पंचों के कहने से शिव ने सती से विवाह किया था, परन्तु फिर उसे त्यागकर मरवा डाला॥

दोहा :

* अब सुख सोवत सोचु नहिं भीख मागि भव खाहिं।

सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं॥79॥

भावार्थ:-अब शिव को कोई चिन्ता नहीं रही, भीख माँगकर खा लेते हैं और सुख से सोते हैं। ऐसे स्वभाव से ही अकेले रहने वालों के घर भी भला क्या कभी स्त्रियाँ टिक सकती हैं?॥79॥

चौपाई :

* अजहूँ मानहु कहा हमारा। हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा॥

अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला। गावहिं बेद जासु जस लीला॥1॥

भावार्थ:-अब भी हमारा कहा मानो, हमने तुम्हारे लिए अच्छा वर विचारा है। वह बहुत ही सुंदर, पवित्र, सुखदायक और सुशील है, जिसका यश और लीला वेद गाते हैं॥1॥

* दूषन रहित सकल गुन रासी। श्रीपति पुर बैकुंठ निवासी॥

अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी। सुनत बिहसि कह बचन भवानी॥2॥

भावार्थ:-वह दोषों से रहित, सारे सद्‍गुणों की राशि, लक्ष्मी का स्वामी और वैकुण्ठपुरी का रहने वाला है। हम ऐसे वर को लाकर तुमसे मिला देंगे। यह सुनते ही पार्वतीजी हँसकर बोलीं-॥2॥

* सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा। हठ न छूट छूटै बरु देहा॥

कनकउ पुनि पषान तें होई। जारेहुँ सहजु न परिहर सोई॥3॥

भावार्थ:-आपने यह सत्य ही कहा कि मेरा यह शरीर पर्वत से उत्पन्न हुआ है, इसलिए हठ नहीं छूटेगा, शरीर भले ही छूट जाए। सोना भी पत्थर से ही उत्पन्न होता है, सो वह जलाए जाने पर भी अपने स्वभाव (सुवर्णत्व) को नहीं छोड़ता॥3॥

* नारद बचन न मैं परिहरऊँ। बसउ भवनु उजरउ नहिं डरउँ॥

गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही॥4॥

भावार्थ:-अतः मैं नारदजी के वचनों को नहीं छोड़ूँगी, चाहे घर बसे या उजड़े, इससे मैं नहीं डरती। जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं है, उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी सुगम नहीं होती॥4॥

दोहा :

* महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम।

जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम॥80॥

भावार्थ:-माना कि महादेवजी अवगुणों के भवन हैं और विष्णु समस्त सद्‍गुणों के धाम हैं, पर जिसका मन जिसमें रम गया, उसको तो उसी से काम है॥80॥

चौपाई :

* जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा॥

अब मैं जन्मु संभु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा॥1॥

भावार्थ:-हे मुनीश्वरों! यदि आप पहले मिलते, तो मैं आपका उपदेश सिर-माथे रखकर सुनती, परन्तु अब तो मैं अपना जन्म शिवजी के लिए हार चुकी! फिर गुण-दोषों का विचार कौन करे?॥1॥

* जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी। रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी॥

तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं। बर कन्या अनेक जग माहीं॥2॥

भावार्थ:-यदि आपके हृदय में बहुत ही हठ है और विवाह की बातचीत (बरेखी) किए बिना आपसे रहा ही नहीं जाता, तो संसार में वर-कन्या बहुत हैं। खिलवाड़ करने वालों को आलस्य तो होता नहीं (और कहीं जाकर कीजिए)॥2॥

* जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥

तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहिं सत बार महेसू॥3॥

भावार्थ:-मेरा तो करोड़ जन्मों तक यही हठ रहेगा कि या तो शिवजी को वरूँगी, नहीं तो कुमारी ही रहूँगी। स्वयं शिवजी सौ बार कहें, तो भी नारदजी के उपदेश को न छोड़ूँगी॥3॥

* मैं पा परउँ कहइ जगदंबा। तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा॥

देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी। जय जय जगदंबिके भवानी॥4॥

भावार्थ:-जगज्जननी पार्वतीजी ने फिर कहा कि मैं आपके पैरों पड़ती हूँ। आप अपने घर जाइए, बहुत देर हो गई। (शिवजी में पार्वतीजी का ऐसा) प्रेम देखकर ज्ञानी मुनि बोले- हे जगज्जननी! हे भवानी! आपकी जय हो! जय हो!!॥4॥

दोहा :

* तुम्ह माया भगवान सिव सकल गजत पितु मातु।

नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु॥81॥

भावार्थ:-आप माया हैं और शिवजी भगवान हैं। आप दोनों समस्त जगत के माता-पिता हैं। (यह कहकर) मुनि पार्वतीजी के चरणों में सिर नवाकर चल दिए। उनके शरीर बार-बार पुलकित हो रहे थे॥81॥

चौपाई :

* जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए। करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए॥

बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई। कथा उमा कै सकल सुनाई॥1॥

भावार्थ:-मुनियों ने जाकर हिमवान्‌ को पार्वतीजी के पास भेजा और वे विनती करके उनको घर ले आए, फिर सप्तर्षियों ने शिवजी के पास जाकर उनको पार्वतीजी की सारी कथा सुनाई॥1॥

* भए मगन सिव सुनत सनेहा। हरषि सप्तरिषि गवने गेहा॥

मनु थिर करि तब संभु सुजाना। लगे करन रघुनायक ध्याना॥2॥

भावार्थ:-पार्वतीजी का प्रेम सुनते ही शिवजी आनन्दमग्न हो गए। सप्तर्षि प्रसन्न होकर अपने घर (ब्रह्मलोक) को चले गए। तब सुजान शिवजी मन को स्थिर करके श्री रघुनाथजी का ध्यान करने लगे॥2॥

* तारकु असुर भयउ तेहि काला। भुज प्रताप बल तेज बिसाला॥

तेहिं सब लोक लोकपति जीते। भए देव सुख संपति रीते॥3॥

भावार्थ:-उसी समय तारक नाम का असुर हुआ, जिसकी भुजाओं का बल, प्रताप और तेज बहुत बड़ा था। उसने सब लोक और लोकपालों को जीत लिया, सब देवता सुख और सम्पत्ति से रहित हो गए॥3॥

*अजर अमर सो जीति न जाई। हारे सुर करि बिबिध लराई॥

तब बिरंचि सन जाइ पुकारे। देखे बिधि सब देव दुखारे॥4॥

भावार्थ:-वह अजर-अमर था, इसलिए किसी से जीता नहीं जाता था। देवता उसके साथ बहुत तरह की लड़ाइयाँ लड़कर हार गए। तब उन्होंने ब्रह्माजी के पास जाकर पुकार मचाई। ब्रह्माजी ने सब देवताओं को दुःखी देखा॥4॥

दोहा :

* सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ।

संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोइ॥82॥

भावार्थ:-ब्रह्माजी ने सबको समझाकर कहा- इस दैत्य की मृत्यु तब होगी जब शिवजी के वीर्य से पुत्र उत्पन्न हो, इसको युद्ध में वही जीतेगा॥82॥

चौपाई :

* मोर कहा सुनि करहु उपाई। होइहि ईस्वर करिहि सहाई॥

सतीं जो तजी दच्छ मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा॥1॥

भावार्थ:-मेरी बात सुनकर उपाय करो। ईश्वर सहायता करेंगे और काम हो जाएगा। सतीजी ने जो दक्ष के यज्ञ में देह का त्याग किया था, उन्होंने अब हिमाचल के घर जाकर जन्म लिया है॥1॥

* तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी। सिव समाधि बैठे सबु त्यागी॥

जदपि अहइ असमंजस भारी। तदपि बात एक सुनहु हमारी॥2॥

भावार्थ:-उन्होंने शिवजी को पति बनाने के लिए तप किया है, इधर शिवजी सब छोड़-छाड़कर समाधि लगा बैठे हैं। यद्यपि है तो बड़े असमंजस की बात, तथापि मेरी एक बात सुनो॥2॥

* पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं। करै छोभु संकर मन माहीं॥

तब हम जाइ सिवहि सिर नाई। करवाउब बिबाहु बरिआई॥3॥

भावार्थ:-तुम जाकर कामदेव को शिवजी के पास भेजो, वह शिवजी के मन में क्षोभ उत्पन्न करे (उनकी समाधि भंग करे)। तब हम जाकर शिवजी के चरणों में सिर रख देंगे और जबरदस्ती (उन्हें राजी करके) विवाह करा देंगे॥3॥

* एहि बिधि भलेहिं देवहित होई। मत अति नीक कहइ सबु कोई॥

अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू। प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू॥4॥

भावार्थ:-इस प्रकार से भले ही देवताओं का हित हो (और तो कोई उपाय नहीं है) सबने कहा- यह सम्मति बहुत अच्छी है। फिर देवताओं ने बड़े प्रेम से स्तुति की। तब विषम (पाँच) बाण धारण करने वाला और मछली के चिह्नयुक्त ध्वजा वाला कामदेव प्रकट हुआ॥4॥

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बालकाण्डश्री रामजी का शिवजी से विवाह के लिए अनुरोध


बालकाण्ड

श्री रामजी का शिवजी से विवाह के लिए अनुरोध

दोहा :

* अब बिनती मम सुनहु सिव जौं मो पर निज नेहु।

जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु॥76॥

भावार्थ:-(फिर उन्होंने शिवजी से कहा-) हे शिवजी! यदि मुझ पर आपका स्नेह है, तो अब आप मेरी विनती सुनिए। मुझे यह माँगें दीजिए कि आप जाकर पार्वती के साथ विवाह कर लें॥76॥

चौपाई :

* कह सिव जदपि उचित अस नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥

सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरमु यह नाथ हमारा॥1॥

भावार्थ:-शिवजी ने कहा- यद्यपि ऐसा उचित नहीं है, परन्तु स्वामी की बात भी मेटी नहीं जा सकती। हे नाथ! मेरा यही परम धर्म है कि मैं आपकी आज्ञा को सिर पर रखकर उसका पालन करूँ॥1॥

* मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥

तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥2॥

भावार्थ:-माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना ही विचारे शुभ समझकर करना (मानना) चाहिए। फिर आप तो सब प्रकार से मेरे परम हितकारी हैं। हे नाथ! आपकी आज्ञा मेरे सिर पर है॥2॥

* प्रभु तोषेउ सुनि संकर बचना। भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना॥

कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ। अब उर राखेहु जो हम कहेऊ॥3॥

भावार्थ:-शिवजी की भक्ति, ज्ञान और धर्म से युक्त वचन रचना सुनकर प्रभु रामचन्द्रजी संतुष्ट हो गए। प्रभु ने कहा- हे हर! आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो गई। अब हमने जो कहा है, उसे हृदय में रखना॥3॥

* अंतरधान भए अस भाषी। संकर सोइ मूरति उर राखी॥

तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए। बोले प्रभु अति बचन सुहाए॥4॥

भावार्थ:-इस प्रकार कहकर श्री रामचन्द्रजी अन्तर्धान हो गए। शिवजी ने उनकी वह मूर्ति अपने हृदय में रख ली। उसी समय सप्तर्षि शिवजी के पास आए। प्रभु महादेवजी ने उनसे अत्यन्त सुहावने वचन कहे-॥4॥

दोहा :

* पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु।

गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु॥77॥

भावार्थ:-आप लोग पार्वती के पास जाकर उनके प्रेम की परीक्षा लीजिए और हिमाचल को कहकर (उन्हें पार्वती को लिवा लाने के लिए भेजिए तथा) पार्वती को घर भिजवाइए और उनके संदेह को दूर कीजिए॥77॥

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बालकाण्डपार्वती का जन्म और तपस्या


बालकाण्ड

पार्वती का जन्म और तपस्या

*सतीं मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा॥

तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई। जनमीं पारबती तनु पाई॥3॥

भावार्थ:-सती ने मरते समय भगवान हरि से यह वर माँगा कि मेरा जन्म-जन्म में शिवजी के चरणों में अनुराग रहे। इसी कारण उन्होंने हिमाचल के घर जाकर पार्वती के शरीर से जन्म लिया॥3॥

*जब तें उमा सैल गृह जाईं। सकल सिद्धि संपति तहँ छाईं॥

जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे। उचित बास हिम भूधर दीन्हे॥4॥

भावार्थ:-जब से उमाजी हिमाचल के घर जन्मीं, तबसे वहाँ सारी सिद्धियाँ और सम्पत्तियाँ छा गईं। मुनियों ने जहाँ-तहाँ सुंदर आश्रम बना लिए और हिमाचल ने उनको उचित स्थान दिए॥4॥

दोहा :

* सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति।

प्रगटीं सुंदर सैल पर मनि आकर बहु भाँति॥65॥

भावार्थ:-उस सुंदर पर्वत पर बहुत प्रकार के सब नए-नए वृक्ष सदा पुष्प-फलयुक्त हो गए और वहाँ बहुत तरह की मणियों की खानें प्रकट हो गईं॥65॥

चौपाई :

* सरिता सब पुनीत जलु बहहीं। खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं॥

सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा। गिरि पर सकल करहिं अनुरागा॥1॥

भावार्थ:-सारी नदियों में पवित्र जल बहता है और पक्षी, पशु, भ्रमर सभी सुखी रहते हैं। सब जीवों ने अपना स्वाभाविक बैर छोड़ दिया और पर्वत पर सभी परस्पर प्रेम करते हैं॥1॥

* सोह सैल गिरिजा गृह आएँ। जिमि जनु रामभगति के पाएँ॥

नित नूतन मंगल गृह तासू। ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू॥2॥

भावार्थ:-पार्वतीजी के घर आ जाने से पर्वत ऐसा शोभायमान हो रहा है जैसा रामभक्ति को पाकर भक्त शोभायमान होता है। उस (पर्वतराज) के घर नित्य नए-नए मंगलोत्सव होते हैं, जिसका ब्रह्मादि यश गाते हैं॥2॥

* नारद समाचार सब पाए। कोतुकहीं गिरि गेह सिधाए॥

सैलराज बड़ आदर कीन्हा। पद पखारि बर आसनु दीन्हा॥3॥

भावार्थ:-जब नारदजी ने ये सब समाचार सुने तो वे कौतुक ही से हिमाचल के घर पधारे। पर्वतराज ने उनका बड़ा आदर किया और चरण धोकर उनको उत्तम आसन दिया॥3॥

* नारि सहित मुनि पद सिरु नावा। चरन सलिल सबु भवनु सिंचावा॥

निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना। सुता बोलि मेली मुनि चरना॥4॥

भावार्थ:-फिर अपनी स्त्री सहित मुनि के चरणों में सिर नवाया और उनके चरणोदक को सारे घर में छिड़काया। हिमाचल ने अपने सौभाग्य का बहुत बखान किया और पुत्री को बुलाकर मुनि के चरणों पर डाल दिया॥4॥

दोहा :

* त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि।

कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि॥66॥

भावार्थ:-(और कहा-) हे मुनिवर! आप त्रिकालज्ञ और सर्वज्ञ हैं, आपकी सर्वत्र पहुँच है। अतः आप हृदय में विचार कर कन्या के दोष-गुण कहिए॥66॥

चौपाई :

* कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी। सुता तुम्हारि सकल गुन खानी॥

सुंदर सहज सुसील सयानी। नाम उमा अंबिका भवानी॥1॥

भावार्थ:-नारद मुनि ने हँसकर रहस्ययुक्त कोमल वाणी से कहा- तुम्हारी कन्या सब गुणों की खान है। यह स्वभाव से ही सुंदर, सुशील और समझदार है। उमा, अम्बिका और भवानी इसके नाम हैं॥1॥

* सब लच्छन संपन्न कुमारी। होइहि संतत पियहि पिआरी॥

सदा अचल एहि कर अहिवाता। एहि तें जसु पैहहिं पितु माता॥2॥

भावार्थ:-कन्या सब सुलक्षणों से सम्पन्न है, यह अपने पति को सदा प्यारी होगी। इसका सुहाग सदा अचल रहेगा और इससे इसके माता-पिता यश पावेंगे॥2॥

* होइहि पूज्य सकल जग माहीं। एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं॥

एहि कर नामु सुमिरि संसारा। त्रिय चढ़िहहिं पतिब्रत असिधारा॥3॥

भावार्थ:-यह सारे जगत में पूज्य होगी और इसकी सेवा करने से कुछ भी दुर्लभ न होगा। संसार में स्त्रियाँ इसका नाम स्मरण करके पतिव्रता रूपी तलवार की धार पर चढ़ जाएँगी॥3॥

* सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी। सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी॥

अगुन अमान मातु पितु हीना। उदासीन सब संसय छीना॥4॥

भावार्थ:-हे पर्वतराज! तुम्हारी कन्या सुलच्छनी है। अब इसमें जो दो-चार अवगुण हैं, उन्हें भी सुन लो। गुणहीन, मानहीन, माता-पिताविहीन, उदासीन, संशयहीन (लापरवाह)॥4॥

दोहा :

* जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष।

अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥67॥

भावार्थ:-योगी, जटाधारी, निष्काम हृदय, नंगा और अमंगल वेष वाला, ऐसा पति इसको मिलेगा। इसके हाथ में ऐसी ही रेखा पड़ी है॥67॥

चौपाई :

* सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दंपतिहि उमा हरषानी॥

नारदहूँ यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना॥1॥

भावार्थ:-नारद मुनि की वाणी सुनकर और उसको हृदय में सत्य जानकर पति-पत्नी (हिमवान्‌ और मैना) को दुःख हुआ और पार्वतीजी प्रसन्न हुईं। नारदजी ने भी इस रहस्य को नहीं जाना, क्योंकि सबकी बाहरी दशा एक सी होने पर भी भीतरी समझ भिन्न-भिन्न थी॥1॥

* सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना॥

होइ न मृषा देवरिषि भाषा। उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा॥2॥

भावार्थ:-सारी सखियाँ, पार्वती, पर्वतराज हिमवान्‌ और मैना सभी के शरीर पुलकित थे और सभी के नेत्रों में जल भरा था। देवर्षि के वचन असत्य नहीं हो सकते, (यह विचारकर) पार्वती ने उन वचनों को हृदय में धारण कर लिया॥2॥

* उपजेउ सिव पद कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा संदेहू॥

जानि कुअवसरु प्रीति दुराई। सखी उछँग बैठी पुनि जाई॥3॥

भावार्थ:-उन्हें शिवजी के चरण कमलों में स्नेह उत्पन्न हो आया, परन्तु मन में यह संदेह हुआ कि उनका मिलना कठिन है। अवसर ठीक न जानकर उमा ने अपने प्रेम को छिपा लिया और फिर वे सखी की गोद में जाकर बैठ गईं॥3॥

* झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहिं दंपति सखीं सयानी॥

उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिअ उपाऊ॥4॥

भावार्थ:-देवर्षि की वाणी झूठी न होगी, यह विचार कर हिमवान्‌, मैना और सारी चतुर सखियाँ चिन्ता करने लगीं। फिर हृदय में धीरज धरकर पर्वतराज ने कहा- हे नाथ! कहिए, अब क्या उपाय किया जाए?॥4॥

दोहा :

* कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।

देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥68॥

भावार्थ:-मुनीश्वर ने कहा- हे हिमवान्‌! सुनो, विधाता ने ललाट पर जो कुछ लिख दिया है, उसको देवता, दानव, मनुष्य, नाग और मुनि कोई भी नहीं मिटा सकते॥68॥

चौपाई :

* तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥

जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं। मिलिहि उमहि तस संसय नाहीं॥1॥

भावार्थ:-तो भी एक उपाय मैं बताता हूँ। यदि दैव सहायता करें तो वह सिद्ध हो सकता है। उमा को वर तो निःसंदेह वैसा ही मिलेगा, जैसा मैंने तुम्हारे सामने वर्णन किया है॥1॥

* जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहिं मैं अनुमाने॥

जौं बिबाहु संकर सन होई। दोषउ गुन सम कह सबु कोई॥2॥

भावार्थ:-परन्तु मैंने वर के जो-जो दोष बतलाए हैं, मेरे अनुमान से वे सभी शिवजी में हैं। यदि शिवजी के साथ विवाह हो जाए तो दोषों को भी सब लोग गुणों के समान ही कहेंगे॥2॥

* जौं अहि सेज सयन हरि करहीं। बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं॥

भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं॥3॥

भावार्थ:-जैसे विष्णु भगवान शेषनाग की शय्या पर सोते हैं, तो भी पण्डित लोग उनको कोई दोष नहीं लगाते। सूर्य और अग्निदेव अच्छे-बुरे सभी रसों का भक्षण करते हैं, परन्तु उनको कोई बुरा नहीं कहता॥3॥

*सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥

समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥4॥

भावार्थ:-गंगाजी में शुभ और अशुभ सभी जल बहता है, पर कोई उन्हें अपवित्र नहीं कहता। सूर्य, अग्नि और गंगाजी की भाँति समर्थ को कुछ दोष नहीं लगता॥4॥

दोहा :

* जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ बिबेक अभिमान।

परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥69॥

भावार्थ:-यदि मूर्ख मनुष्य ज्ञान के अभिमान से इस प्रकार होड़ करते हैं, तो वे कल्पभर के लिए नरक में पड़ते हैं। भला कहीं जीव भी ईश्वर के समान (सर्वथा स्वतंत्र) हो सकता है?॥69॥

चौपाई :

* सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना॥

सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अंतरु तैसें॥1॥

भावार्थ:-गंगा जल से भी बनाई हुई मदिरा को जानकर संत लोग कभी उसका पान नहीं करते। पर वही गंगाजी में मिल जाने पर जैसे पवित्र हो जाती है, ईश्वर और जीव में भी वैसा ही भेद है॥1॥

* संभु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना॥

दुराराध्य पै अहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किएँ कलेसू॥2॥

भावार्थ:-शिवजी सहज ही समर्थ हैं, क्योंकि वे भगवान हैं, इसलिए इस विवाह में सब प्रकार कल्याण है, परन्तु महादेवजी की आराधना बड़ी कठिन है, फिर भी क्लेश (तप) करने से वे बहुत जल्द संतुष्ट हो जाते हैं॥2॥

* जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी॥

जद्यपि बर अनेक जग माहीं। एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं॥3॥

भावार्थ:-यदि तुम्हारी कन्या तप करे, तो त्रिपुरारि महादेवजी होनहार को मिटा सकते हैं। यद्यपि संसार में वर अनेक हैं, पर इसके लिए शिवजी को छोड़कर दूसरा वर नहीं है॥3॥

* बर दायक प्रनतारति भंजन। कृपासिंधु सेवक मन रंजन॥

इच्छित फल बिनु सिव अवराधें। लहिअ न कोटि जोग जप साधें॥4॥

भावार्थ:-शिवजी वर देने वाले, शरणागतों के दुःखों का नाश करने वाले, कृपा के समुद्र और सेवकों के मन को प्रसन्न करने वाले हैं। शिवजी की आराधना किए बिना करोड़ों योग और जप करने पर भी वांछित फल नहीं मिलता॥4॥

दोहा :

* अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस।

होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥70॥

भावार्थ:-ऐसा कहकर भगवान का स्मरण करके नारदजी ने पार्वती को आशीर्वाद दिया। (और कहा कि-) हे पर्वतराज! तुम संदेह का त्याग कर दो, अब यह कल्याण ही होगा॥70॥

चौपाई :

* कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥

पतिहि एकांत पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥1॥

भावार्थ:-यों कहकर नारद मुनि ब्रह्मलोक को चले गए। अब आगे जो चरित्र हुआ उसे सुनो। पति को एकान्त में पाकर मैना ने कहा- हे नाथ! मैंने मुनि के वचनों का अर्थ नहीं समझा॥1॥

* जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा। करिअ बिबाहु सुता अनुरूपा॥

न त कन्या बरु रहउ कुआरी। कंत उमा मम प्रानपिआरी॥2॥

भावार्थ:-जो हमारी कन्या के अनुकूल घर, वर और कुल उत्तम हो तो विवाह कीजिए। नहीं तो लड़की चाहे कुमारी ही रहे (मैं अयोग्य वर के साथ उसका विवाह नहीं करना चाहती), क्योंकि हे स्वामिन्‌! पार्वती मुझको प्राणों के समान प्यारी है॥2॥

* जौं न मिलिहि बरु गिरिजहि जोगू। गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू॥

सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू। जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू॥3॥

भावार्थ:-यदि पार्वती के योग्य वर न मिला तो सब लोग कहेंगे कि पर्वत स्वभाव से ही जड़ (मूर्ख) होते हैं। हे स्वामी! इस बात को विचारकर ही विवाह कीजिएगा, जिसमें फिर पीछे हृदय में सन्ताप न हो॥3॥

* अस कहि परी चरन धरि सीसा। बोले सहित सनेह गिरीसा॥

बरु पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीं॥4॥

भावार्थ:-इस प्रकार कहकर मैना पति के चरणों पर मस्तक रखकर गिर पड़ीं। तब हिमवान्‌ ने प्रेम से कहा- चाहे चन्द्रमा में अग्नि प्रकट हो जाए, पर नारदजी के वचन झूठे नहीं हो सकते॥4॥

दोहा :

* प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान।

पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान॥71॥

भावार्थ:-हे प्रिये! सब सोच छोड़कर श्री भगवान का स्मरण करो, जिन्होंने पार्वती को रचा है, वे ही कल्याण करेंगे॥71॥

चौपाई :

* अब जौं तुम्हहि सुता पर नेहू। तौ अस जाइ सिखावनु देहू॥

करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटिहि कलेसू॥1॥

भावार्थ:-अब यदि तुम्हें कन्या पर प्रेम है, तो जाकर उसे यह शिक्षा दो कि वह ऐसा तप करे, जिससे शिवजी मिल जाएँ। दूसरे उपाय से यह क्लेश नहीं मिटेगा॥1॥

* नारद बचन सगर्भ सहेतू। सुंदर सब गुन निधि बृषकेतू॥

अस बिचारि तुम्ह तजहु असंका। सबहि भाँति संकरु अकलंका॥2॥

भावार्थ:-नारदजी के वचन रहस्य से युक्त और सकारण हैं और शिवजी समस्त सुंदर गुणों के भण्डार हैं। यह विचारकर तुम (मिथ्या) संदेह को छोड़ दो। शिवजी सभी तरह से निष्कलंक हैं॥2॥

* सुनि पति बचन हरषि मन माहीं। गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं॥

उमहि बिलोकि नयन भरे बारी। सहित सनेह गोद बैठारी॥3॥

भावार्थ:-पति के वचन सुन मन में प्रसन्न होकर मैना उठकर तुरंत पार्वती के पास गईं। पार्वती को देखकर उनकी आँखों में आँसू भर आए। उसे स्नेह के साथ गोद में बैठा लिया॥3॥

दोहा :

* बारहिं बार लेति उर लाई। गदगद कंठ न कछु कहि जाई॥

जगत मातु सर्बग्य भवानी। मातु सुखद बोलीं मृदु बानी॥4॥

भावार्थ:-फिर बार-बार उसे हृदय से लगाने लगीं। प्रेम से मैना का गला भर आया, कुछ कहा नहीं जाता। जगज्जननी भवानीजी तो सर्वज्ञ ठहरीं। (माता के मन की दशा को जानकर) वे माता को सुख देने वाली कोमल वाणी से बोलीं-॥4॥

दोहा :

* सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि।

सुंदर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि॥72॥

भावार्थ:-माँ! सुन, मैं तुझे सुनाती हूँ, मैंने ऐसा स्वप्न देखा है कि मुझे एक सुंदर गौरवर्ण श्रेष्ठ ब्राह्मण ने ऐसा उपदेश दिया है-॥72॥

चौपाई :

* करहि जाइ तपु सैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी॥

मातु पितहि पुनि यह मत भावा। तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा॥1॥

भावार्थ:-हे पार्वती! नारदजी ने जो कहा है, उसे सत्य समझकर तू जाकर तप कर। फिर यह बात तेरे माता-पिता को भी अच्छी लगी है। तप सुख देने वाला और दुःख-दोष का नाश करने वाला है॥1॥

* तपबल रचइ प्रपंचु बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥

तपबल संभु करहिं संघारा। तपबल सेषु धरइ महिभारा॥2॥

भावार्थ:-तप के बल से ही ब्रह्मा संसार को रचते हैं और तप के बल से ही बिष्णु सारे जगत का पालन करते हैं। तप के बल से ही शम्भु (रुद्र रूप से) जगत का संहार करते हैं और तप के बल से ही शेषजी पृथ्वी का भार धारण करते हैं॥2॥

* तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाइ तपु अस जियँ जानी॥

सुनत बचन बिसमित महतारी। सपन सुनायउ गिरिहि हँकारी॥3॥

भावार्थ:-हे भवानी! सारी सृष्टि तप के ही आधार पर है। ऐसा जी में जानकर तू जाकर तप कर। यह बात सुनकर माता को बड़ा अचरज हुआ और उसने हिमवान्‌ को बुलाकर वह स्वप्न सुनाया॥3॥

दोहा :

* मातु पितहि बहुबिधि समुझाई। चलीं उमा तप हित हरषाई॥

प्रिय परिवार पिता अरु माता। भए बिकल मुख आव न बाता॥4॥

भावार्थ:-माता-पिता को बहुत तरह से समझाकर बड़े हर्ष के साथ पार्वतीजी तप करने के लिए चलीं। प्यारे कुटुम्बी, पिता और माता सब व्याकुल हो गए। किसी के मुँह से बात नहीं निकलती॥4॥

दोहा :

*बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ।

पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ॥73॥

भावार्थ:-तब वेदशिरा मुनि ने आकर सबको समझाकर कहा। पार्वतीजी की महिमा सुनकर सबको समाधान हो गया॥73॥

चौपाई :

* उर धरि उमा प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तपु करना॥

अति सुकुमार न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू॥1॥

भावार्थ:-प्राणपति (शिवजी) के चरणों को हृदय में धारण करके पार्वतीजी वन में जाकर तप करने लगीं। पार्वतीजी का अत्यन्त सुकुमार शरीर तप के योग्य नहीं था, तो भी पति के चरणों का स्मरण करके उन्होंने सब भोगों को तज दिया॥1॥

* नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा॥

संबत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए॥2॥

भावार्थ:-स्वामी के चरणों में नित्य नया अनुराग उत्पन्न होने लगा और तप में ऐसा मन लगा कि शरीर की सारी सुध बिसर गई। एक हजार वर्ष तक उन्होंने मूल और फल खाए, फिर सौ वर्ष साग खाकर बिताए॥2॥

* कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा॥

बेल पाती महि परइ सुखाई। तीनि सहस संबत सोइ खाई॥3॥

भावार्थ:-कुछ दिन जल और वायु का भोजन किया और फिर कुछ दिन कठोर उपवास किए, जो बेल पत्र सूखकर पृथ्वी पर गिरते थे, तीन हजार वर्ष तक उन्हीं को खाया॥3॥

* पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहि नामु तब भयउ अपरना॥

देखि उमहि तप खीन सरीरा। ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा॥4॥

भावार्थ:-फिर सूखे पर्ण (पत्ते) भी छोड़ दिए, तभी पार्वती का नाम 'अपर्णा' हुआ। तप से उमा का शरीर क्षीण देखकर आकाश से गंभीर ब्रह्मवाणी हुई-॥4॥

दोहा :

* भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिराजकुमारि।

परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि॥74॥

भावार्थ:-हे पर्वतराज की कुमारी! सुन, तेरा मनोरथ सफल हुआ। तू अब सारे असह्य क्लेशों को (कठिन तप को) त्याग दे। अब तुझे शिवजी मिलेंगे॥74॥

चौपाई :

* अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी। भए अनेक धीर मुनि ग्यानी॥

अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी। सत्य सदा संतत सुचि जानी॥1॥

भावार्थ:-हे भवानी! धीर, मुनि और ज्ञानी बहुत हुए हैं, पर ऐसा (कठोर) तप किसी ने नहीं किया। अब तू इस श्रेष्ठ ब्रह्मा की वाणी को सदा सत्य और निरंतर पवित्र जानकर अपने हृदय में धारण कर॥1॥

* आवै पिता बोलावन जबहीं। हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं॥

मिलहिं तुम्हहि जब सप्त रिषीसा। जानेहु तब प्रमान बागीसा॥2॥

भावार्थ:-जब तेरे पिता बुलाने को आवें, तब हठ छोड़कर घर चली जाना और जब तुम्हें सप्तर्षि मिलें तब इस वाणी को ठीक समझना॥2॥

* सुनत गिरा बिधि गगन बखानी। पुलक गात गिरिजा हरषानी॥

उमा चरित सुंदर मैं गावा। सुनहु संभु कर चरित सुहावा॥3॥

भावार्थ:-(इस प्रकार) आकाश से कही हुई ब्रह्मा की वाणी को सुनते ही पार्वतीजी प्रसन्न हो गईं और (हर्ष के मारे) उनका शरीर पुलकित हो गया। (याज्ञवल्क्यजी भरद्वाजजी से बोले कि-) मैंने पार्वती का सुंदर चरित्र सुनाया, अब शिवजी का सुहावना चरित्र सुनो॥3॥

* जब तें सतीं जाइ तनु त्यागा। तब तें सिव मन भयउ बिरागा॥

जपहिं सदा रघुनायक नामा। जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा॥4॥

भावार्थ:-जब से सती ने जाकर शरीर त्याग किया, तब से शिवजी के मन में वैराग्य हो गया। वे सदा श्री रघुनाथजी का नाम जपने लगे और जहाँ-तहाँ श्री रामचन्द्रजी के गुणों की कथाएँ सुनने लगे॥4॥

दोहा :

* चिदानंद सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम।

बिचरहिं महि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम॥75॥

भावार्थ:-चिदानन्द, सुख के धाम, मोह, मद और काम से रहित शिवजी सम्पूर्ण लोकों को आनंद देने वाले भगवान श्री हरि (श्री रामचन्द्रजी) को हृदय में धारण कर (भगवान के ध्यान में मस्त हुए) पृथ्वी पर विचरने लगे॥75॥

चौपाई :

* कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना। कतहुँ राम गुन करहिं बखाना॥

जदपि अकाम तदपि भगवाना। भगत बिरह दुख दुखित सुजाना॥1॥

भावार्थ:-वे कहीं मुनियों को ज्ञान का उपदेश करते और कहीं श्री रामचन्द्रजी के गुणों का वर्णन करते थे। यद्यपि सुजान शिवजी निष्काम हैं, तो भी वे भगवान अपने भक्त (सती) के वियोग के दुःख से दुःखी हैं॥1॥

* एहि बिधि गयउ कालु बहु बीती। नित नै होइ राम पद प्रीती॥

नेमु प्रेमु संकर कर देखा। अबिचल हृदयँ भगति कै रेखा॥2॥

भावार्थ:-इस प्रकार बहुत समय बीत गया। श्री रामचन्द्रजी के चरणों में नित नई प्रीति हो रही है। शिवजी के (कठोर) नियम, (अनन्य) प्रेम और उनके हृदय में भक्ति की अटल टेक को (जब श्री रामचन्द्रजी ने) देखा॥2॥

* प्रगटे रामु कृतग्य कृपाला। रूप सील निधि तेज बिसाला॥

बहु प्रकार संकरहि सराहा। तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा॥3॥

भावार्थ:-तब कृतज्ञ (उपकार मानने वाले), कृपालु, रूप और शील के भण्डार, महान्‌ तेजपुंज भगवान श्री रामचन्द्रजी प्रकट हुए। उन्होंने बहुत तरह से शिवजी की सराहना की और कहा कि आपके बिना ऐसा (कठिन) व्रत कौन निबाह सकता है॥3॥

* बहुबिधि राम सिवहि समुझावा। पारबती कर जन्मु सुनावा॥

अति पुनीत गिरिजा कै करनी। बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी॥4॥

भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी ने बहुत प्रकार से शिवजी को समझाया और पार्वतीजी का जन्म सुनाया। कृपानिधान श्री रामचन्द्रजी ने विस्तारपूर्वक पार्वतीजी की अत्यन्त पवित्र करनी का वर्णन किया॥4॥

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बालकाण्डपति के अपमान से दुःखी होकर सती का योगाग्नि से जल जाना, दक्ष यज्ञ विध्वंस


बालकाण्ड

पति के अपमान से दुःखी होकर सती का योगाग्नि से जल जाना, दक्ष यज्ञ विध्वंस

दोहा :

* सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध।

सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध॥63॥

भावार्थ:-परन्तु उनसे शिवजी का अपमान सहा नहीं गया, इससे उनके हृदय में कुछ भी प्रबोध नहीं हुआ। तब वे सारी सभा को हठपूर्वक डाँटकर क्रोधभरे वचन बोलीं-॥63॥

चौपाई :

* सुनहु सभासद सकल मुनिंदा। कही सुनी जिन्ह संकर निंदा॥

सो फलु तुरत लहब सब काहूँ। भली भाँति पछिताब पिताहूँ॥1॥

भावार्थ:-हे सभासदों और सब मुनीश्वरो! सुनो। जिन लोगों ने यहाँ शिवजी की निंदा की या सुनी है, उन सबको उसका फल तुरंत ही मिलेगा और मेरे पिता दक्ष भी भलीभाँति पछताएँगे॥1॥

* संत संभु श्रीपति अपबादा। सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा॥

काटिअ तासु जीभ जो बसाई। श्रवन मूदि न त चलिअ पराई॥2॥

भावार्थ:-जहाँ संत, शिवजी और लक्ष्मीपति श्री विष्णु भगवान की निंदा सुनी जाए, वहाँ ऐसी मर्यादा है कि यदि अपना वश चले तो उस (निंदा करने वाले) की जीभ काट लें और नहीं तो कान मूँदकर वहाँ से भाग जाएँ॥2॥

*जगदातमा महेसु पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी॥

पिता मंदमति निंदत तेही। दच्छ सुक्र संभव यह देही॥3॥

भावार्थ:-त्रिपुर दैत्य को मारने वाले भगवान महेश्वर सम्पूर्ण जगत की आत्मा हैं, वे जगत्पिता और सबका हित करने वाले हैं। मेरा मंदबुद्धि पिता उनकी निंदा करता है और मेरा यह शरीर दक्ष ही के वीर्य से उत्पन्न है॥3॥

* तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू॥

अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा॥4॥

भावार्थ:-इसलिए चन्द्रमा को ललाट पर धारण करने वाले वृषकेतु शिवजी को हृदय में धारण करके मैं इस शरीर को तुरंत ही त्याग दूँगी। ऐसा कहकर सतीजी ने योगाग्नि में अपना शरीर भस्म कर डाला। सारी यज्ञशाला में हाहाकार मच गया॥4॥

दोहा :

* सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस।

जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस॥64॥ ॥

भावार्थ:-सती का मरण सुनकर शिवजी के गण यज्ञ विध्वंस करने लगे। यज्ञ विध्वंस होते देखकर मुनीश्वर भृगुजी ने उसकी रक्षा की॥64॥

चौपाई :

* समाचार सब संकर पाए। बीरभद्रु करि कोप पठाए॥

जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा। सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा॥1॥

भावार्थ:-ये सब समाचार शिवजी को मिले, तब उन्होंने क्रोध करके वीरभद्र को भेजा। उन्होंने वहाँ जाकर यज्ञ विध्वंस कर डाला और सब देवताओं को यथोचित फल (दंड) दिया॥1॥

* भै जगबिदित दच्छ गति सोई। जसि कछु संभु बिमुख कै होई॥

यह इतिहास सकल जग जानी। ताते मैं संछेप बखानी॥2॥

भावार्थ:-दक्ष की जगत्प्रसिद्ध वही गति हुई, जो शिवद्रोही की हुआ करती है। यह इतिहास सारा संसार जानता है, इसलिए मैंने संक्षेप में वर्णन किया॥2॥

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बालकाण्डसती का दक्ष यज्ञ में जाना


बालकाण्ड

सती का दक्ष यज्ञ में जाना

दोहा :

* दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग।

नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग॥60॥

भावार्थ:-दक्ष ने सब मुनियों को बुला लिया और वे बड़ा यज्ञ करने लगे। जो देवता यज्ञ का भाग पाते हैं, दक्ष ने उन सबको आदर सहित निमन्त्रित किया॥60॥

चौपाई :

* किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा। बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा॥

बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई। चले सकल सुर जान बनाई॥1॥

भावार्थ:-(दक्ष का निमन्त्रण पाकर) किन्नर, नाग, सिद्ध, गन्धर्व और सब देवता अपनी-अपनी स्त्रियों सहित चले। विष्णु, ब्रह्मा और महादेवजी को छोड़कर सभी देवता अपना-अपना विमान सजाकर चले॥1॥

* सतीं बिलोके ब्योम बिमाना। जात चले सुंदर बिधि नाना॥

सुर सुंदरी करहिं कल गाना। सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना॥2॥

भावार्थ:-सतीजी ने देखा, अनेकों प्रकार के सुंदर विमान आकाश में चले जा रहे हैं, देव-सुन्दरियाँ मधुर गान कर रही हैं, जिन्हें सुनकर मुनियों का ध्यान छूट जाता है॥2॥

* पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी। पिता जग्य सुनि कछु हरषानी॥

जौं महेसु मोहि आयसु देहीं। कछु ‍िदन जाइ रहौं मिस एहीं॥3॥

भावार्थ:-सतीजी ने (विमानों में देवताओं के जाने का कारण) पूछा, तब शिवजी ने सब बातें बतलाईं। पिता के यज्ञ की बात सुनकर सती कुछ प्रसन्न हुईं और सोचने लगीं कि यदि महादेवजी मुझे आज्ञा दें, तो इसी बहाने कुछ दिन पिता के घर जाकर रहूँ॥3॥

* पति परित्याग हृदयँ दुखु भारी। कहइ न निज अपराध बिचारी॥

बोली सती मनोहर बानी। भय संकोच प्रेम रस सानी॥4॥

भावार्थ:-क्योंकि उनके हृदय में पति द्वारा त्यागी जाने का बड़ा भारी दुःख था, पर अपना अपराध समझकर वे कुछ कहती न थीं। आखिर सतीजी भय, संकोच और प्रेमरस में सनी हुई मनोहर वाणी से बोलीं- ॥4॥

दोहा :

* पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ।

तौ मैं जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ॥61॥

भावार्थ:-हे प्रभो! मेरे पिता के घर बहुत बड़ा उत्सव है। यदि आपकी आज्ञा हो तो हे कृपाधाम! मैं आदर सहित उसे देखने जाऊँ॥61॥

चौपाई :

* कहेहु नीक मोरेहूँ मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा॥

दच्छ सकल निज सुता बोलाईं। हमरें बयर तुम्हउ बिसराईं॥1॥

भावार्थ:-शिवजी ने कहा- तुमने बात तो अच्छी कही, यह मेरे मन को भी पसंद आई पर उन्होंने न्योता नहीं भेजा, यह अनुचित है। दक्ष ने अपनी सब लड़कियों को बुलाया है, किन्तु हमारे बैर के कारण उन्होंने तुमको भी भुला दिया॥1॥

* ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना। तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना॥

जौं बिनु बोलें जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी॥2॥

भावार्थ:-एक बार ब्रह्मा की सभा में हम से अप्रसन्न हो गए थे, उसी से वे अब भी हमारा अपमान करते हैं। हे भवानी! जो तुम बिना बुलाए जाओगी तो न शील-स्नेह ही रहेगा और न मान-मर्यादा ही रहेगी॥2॥

* जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा॥

तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गएँ कल्यानु न होई॥3॥

भावार्थ:-यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाए भी जाना चाहिए तो भी जहाँ कोई विरोध मानता हो, उसके घर जाने से कल्याण नहीं होता॥3॥

* भाँति अनेक संभु समुझावा। भावी बस न ग्यानु उर आवा॥

कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ। नहिं भलि बात हमारे भाएँ॥4॥

भावार्थ:-शिवजी ने बहुत प्रकार से समझाया, पर होनहारवश सती के हृदय में बोध नहीं हुआ। फिर शिवजी ने कहा कि यदि बिना बुलाए जाओगी, तो हमारी समझ में अच्छी बात न होगी॥4॥

दोहा :

* कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि।

दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि॥62॥

भावार्थ:-शिवजी ने बहुत प्रकार से कहकर देख लिया, किन्तु जब सती किसी प्रकार भी नहीं रुकीं, तब त्रिपुरारि महादेवजी ने अपने मुख्य गणों को साथ देकर उनको बिदा कर दिया॥62॥

चौपाई :

* पिता भवन जब गईं भवानी। दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी॥

सादर भलेहिं मिली एक माता। भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता॥1॥

भावार्थ:-भवानी जब पिता (दक्ष) के घर पहुँची, तब दक्ष के डर के मारे किसी ने उनकी आवभगत नहीं की, केवल एक माता भले ही आदर से मिली। बहिनें बहुत मुस्कुराती हुई मिलीं॥1॥

* दच्छ न कछु पूछी कुसलाता। सतिहि बिलोकी जरे सब गाता॥

सतीं जाइ देखेउ तब जागा। कतहूँ न दीख संभु कर भागा॥2॥

भावार्थ:-दक्ष ने तो उनकी कुछ कुशल तक नहीं पूछी, सतीजी को देखकर उलटे उनके सारे अंग जल उठे। तब सती ने जाकर यज्ञ देखा तो वहाँ कहीं शिवजी का भाग दिखाई नहीं दिया॥2॥

* तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ। प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ॥

पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा। जस यह भयउ महा परितापा॥3॥

भावार्थ:-तब शिवजी ने जो कहा था, वह उनकी समझ में आया। स्वामी का अपमान समझकर सती का हृदय जल उठा। पिछला (पति परित्याग का) दुःख उनके हृदय में उतना नहीं व्यापा था, जितना महान्‌ दुःख इस समय (पति अपमान के कारण) हुआ॥3॥

* जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना॥

समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा। बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा॥4॥

भावार्थ:-यद्यपि जगत में अनेक प्रकार के दारुण दुःख हैं, तथापि, जाति अपमान सबसे बढ़कर कठिन है। यह समझकर सतीजी को बड़ा क्रोध हो आया। माता ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया-बुझाया॥4॥

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बालकाण्डशिवजी द्वारा सती का त्याग, शिवजी की समाधि


बालकाण्ड

शिवजी द्वारा सती का त्याग, शिवजी की समाधि

दोहा :

* परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु।

प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु॥56॥

भावार्थ:-सती परम पवित्र हैं, इसलिए इन्हें छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करने में बड़ा पाप है। प्रकट करके महादेवजी कुछ भी नहीं कहते, परन्तु उनके हृदय में बड़ा संताप है॥56॥

चौपाई :

*तब संकर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा॥

एहिं तन सतिहि भेंट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं॥1॥

भावार्थ:-तब शिवजी ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर नवाया और श्री रामजी का स्मरण करते ही उनके मन में यह आया कि सती के इस शरीर से मेरी (पति-पत्नी रूप में) भेंट नहीं हो सकती और शिवजी ने अपने मन में यह संकल्प कर लिया॥1॥

* अस बिचारि संकरु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥

चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़ाई॥2॥

भावार्थ:-स्थिर बुद्धि शंकरजी ऐसा विचार कर श्री रघुनाथजी का स्मरण करते हुए अपने घर (कैलास) को चले। चलते समय सुंदर आकाशवाणी हुई कि हे महेश ! आपकी जय हो। आपने भक्ति की अच्छी दृढ़ता की॥2॥

* अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना॥

सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा॥3॥

भावार्थ:-आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है। आप श्री रामचन्द्रजी के भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान्‌ हैं। इस आकाशवाणी को सुनकर सतीजी के मन में चिन्ता हुई और उन्होंने सकुचाते हुए शिवजी से पूछा-॥3॥

*कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला॥

जदपि सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥4॥

भावार्थ:-हे कृपालु! कहिए, आपने कौन सी प्रतिज्ञा की है? हे प्रभो! आप सत्य के धाम और दीनदयालु हैं। यद्यपि सतीजी ने बहुत प्रकार से पूछा, परन्तु त्रिपुरारि शिवजी ने कुछ न कहा॥4॥

दोहा :

* सतीं हृदयँ अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य।

कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य॥57 क॥

भावार्थ:-सतीजी ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिवजी सब जान गए। मैंने शिवजी से कपट किया, स्त्री स्वभाव से ही मूर्ख और बेसमझ होती है॥57 (क)॥

सोरठा :

* जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।

बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥57 ख॥

भावार्थ:-प्रीति की सुंदर रीति देखिए कि जल भी (दूध के साथ मिलकर) दूध के समान भाव बिकता है, परन्तु फिर कपट रूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है (दूध फट जाता है) और स्वाद (प्रेम) जाता रहता है॥57 (ख)॥

चौ.

* हृदयँ सोचु समुझत निज करनी। चिंता अमित जाइ नहिं बरनी॥

कृपासिंधु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥1॥

भावार्थ:-अपनी करनी को याद करके सतीजी के हृदय में इतना सोच है और इतनी अपार चिन्ता है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। (उन्होंने समझ लिया कि) शिवजी कृपा के परम अथाह सागर हैं। इससे प्रकट में उन्होंने मेरा अपराध नहीं कहा॥1॥

* संकर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी॥

निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइ अवाँ इव उर अधिकाई॥2॥

भावार्थ:-शिवजी का रुख देखकर सतीजी ने जान लिया कि स्वामी ने मेरा त्याग कर दिया और वे हृदय में व्याकुल हो उठीं। अपना पाप समझकर कुछ कहते नहीं बनता, परन्तु हृदय (भीतर ही भीतर) कुम्हार के आँवे के समान अत्यन्त जलने लगा॥2॥

* सतिहि ससोच जानि बृषकेतू। कहीं कथा सुंदर सुख हेतू॥

बरनत पंथ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥3॥

भावार्थ:-वृषकेतु शिवजी ने सती को चिन्तायुक्त जानकर उन्हें सुख देने के लिए सुंदर कथाएँ कहीं। इस प्रकार मार्ग में विविध प्रकार के इतिहासों को कहते हुए विश्वनाथ कैलास जा पहुँचे॥3॥

* तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन॥

संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा॥4॥

भावार्थ:-वहाँ फिर शिवजी अपनी प्रतिज्ञा को याद करके बड़ के पेड़ के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गए। शिवजी ने अपना स्वाभाविक रूप संभाला। उनकी अखण्ड और अपार समाधि लग गई॥4॥

दोहा :

*सती बसहिं कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं।

मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं॥58॥

भावार्थ:-तब सतीजी कैलास पर रहने लगीं। उनके मन में बड़ा दुःख था। इस रहस्य को कोई कुछ भी नहीं जानता था। उनका एक-एक दिन युग के समान बीत रहा था॥58॥

चौपाई :

* नित नव सोचु सती उर भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा॥

मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना॥1॥

भावार्थ:-सतीजी के हृदय में नित्य नया और भारी सोच हो रहा था कि मैं इस दुःख समुद्र के पार कब जाऊँगी। मैंने जो श्री रघुनाथजी का अपमान किया और फिर पति के वचनों को झूठ जाना-॥1॥

* सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा। जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा॥

अब बिधि अस बूझिअ नहिं तोही। संकर बिमुख जिआवसि मोही॥2॥

भावार्थ:-उसका फल विधाता ने मुझको दिया, जो उचित था वही किया, परन्तु हे विधाता! अब तुझे यह उचित नहीं है, जो शंकर से विमुख होने पर भी मुझे जिला रहा है॥2॥

* कहि न जाइ कछु हृदय गलानी। मन महुँ रामहि सुमिर सयानी॥

जौं प्रभु दीनदयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा॥3॥

भावार्थ:-सतीजी के हृदय की ग्लानि कुछ कही नहीं जाती। बुद्धिमती सतीजी ने मन में श्री रामचन्द्रजी का स्मरण किया और कहा- हे प्रभो! यदि आप दीनदयालु कहलाते हैं और वेदों ने आपका यह यश गाया है कि आप दुःख को हरने वाले हैं, ॥3॥

* तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी। छूटउ बेगि देह यह मोरी॥

जौं मोरें सिव चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू॥4॥

भावार्थ:-तो मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ कि मेरी यह देह जल्दी छूट जाए। यदि मेरा शिवजी के चरणों में प्रेम है और मेरा यह (प्रेम का) व्रत मन, वचन और कर्म (आचरण) से सत्य है,॥4॥

दोहा :

* तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ।

होइ मरनु जेहिं बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ॥59॥

भावार्थ:-तो हे सर्वदर्शी प्रभो! सुनिए और शीघ्र वह उपाय कीजिए, जिससे मेरा मरण हो और बिना ही परिश्रम यह (पति-परित्याग रूपी) असह्य विपत्ति दूर हो जाए॥59॥

चौपाई :

* एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी॥

बीतें संबत सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी॥1॥

भावार्थ:-दक्षसुता सतीजी इस प्रकार बहुत दुःखित थीं, उनको इतना दारुण दुःख था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सत्तासी हजार वर्ष बीत जाने पर अविनाशी शिवजी ने समाधि खोली॥1॥

*राम नाम सिव सुमिरन लागे। जानेउ सतीं जगतपति जागे॥

जाइ संभु पद बंदनु कीन्हा। सनमुख संकर आसनु दीन्हा॥2॥

भावार्थ:-शिवजी रामनाम का स्मरण करने लगे, तब सतीजी ने जाना कि अब जगत के स्वामी (शिवजी) जागे। उन्होंने जाकर शिवजी के चरणों में प्रणाम किया। शिवजी ने उनको बैठने के लिए सामने आसन दिया॥2॥

* लगे कहन हरि कथा रसाला। दच्छ प्रजेस भए तेहि काला॥

देखा बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥3॥

भावार्थ:-शिवजी भगवान हरि की रसमयी कथाएँ कहने लगे। उसी समय दक्ष प्रजापति हुए। ब्रह्माजी ने सब प्रकार से योग्य देख-समझकर दक्ष को प्रजापतियों का नायक बना दिया॥3॥

* बड़ अधिकार दच्छ जब पावा। अति अभिनामु हृदयँ तब आवा॥

नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥4॥

भावार्थ:-जब दक्ष ने इतना बड़ा अधिकार पाया, तब उनके हृदय में अत्यन्त अभिमान आ गया। जगत में ऐसा कोई नहीं पैदा हुआ, जिसको प्रभुता पाकर मद न हो॥4॥

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