एक बड़ी पुरानी ताओ कथा है कि एक आदमी बहुत बड़ा धनुर्विद हो गया। सम्राट ने घोषणा की राज्य में, कि इससे बड़ा कोई धनुर्विद नहीं है। अगर कोई प्रतियोगी सोचता हो कि इससे बड़ा धनुर्विद है तो आ कर प्रतियोगिता कर ले। अन्यथा यह आदमी राज्य का सर्वोत्तम धनुर्विद घोषित कर दिया जाएगा। तीन महीने का समय दिया।
दूसरे ही दिन एक बूढ़ा आदमी आया। और उस धनुर्विद से बोला, इस पागलपन में मत पड़ो। क्योंकि मैं एक ऐसे आदमी को जानता हूं, जो तुमसे बड़ा धनुर्विद है। तो उस धनुर्विद ने कहा, तो वह आ जाए और प्रतियोगिता कर ले।
तो वह बूढ़ा हंसने लगा। उसने कहा, जो जितना बड़ा हो जाता है, उतना प्रतियोगिता के पार हो जाता है। यह तो बच्चों का काम है–प्रतियोगिता, काम्पीटीशन। वह नहीं आएगा। अगर तुम्हें सीखना है तो तुम्हें ले चल सकता हूं।
धनुर्विद हैरान हुआ। क्योंकि उसने सोचा भी न था, कि यह बात भी हो सकती है कि बड़ा धनुर्विद हो, लेकिन बड़े होने के कारण प्रतियोगिता में न उतरे। छोटे उतरते हैं प्रतियोगिता में–स्वभावतः। क्योंकि छोटे ही बड़ा होना सिद्ध करना चाहते हैं। इसलिए प्रतियोगिता में उतरते हैं। ताकि सिद्ध हो सके, हम बड़े हैं। जो बड़ा है। वह बिना किसी प्रमाण के बड़ा है। उसे कोई प्रतियोगिता और किसी सम्राट का सर्टिफिकेट नहीं चाहिए।
मनसविद कहते हैं, सिर्फ हीन ग्रंथि से पीड़ित लोग प्रतियोगिता में उतरते हैं; जिनके मन में इनफिरिआरिटी काम्प्लेक्स है, जो डरे हैं। जो भीतर तो जानते हैं, कि हम योग्य नहीं हैं, लेकिन किसी तरह सिद्ध करना है, तो कैसे सिद्ध करें? जिसकी गरिमा स्वयंसिद्ध है, स्वतः प्रमाण है, तो प्रतियोगिता में तो उतरता नहीं।
बात तो जंची। धनुर्विद ने कहा, मैं आता हूं। वह पीछे उस बूढ़े के गया। वह धनुर्विद को ले गया पास के जंगल में। और वहां एक व्यक्ति था। वह लकड़ी काट रहा था। तो धनुर्विद ने पूछा, यह आदमी धनुर्विद है? कहा, यह आदमी धनुर्विद है। इसका धनुष कहां है? तो उस बूढ़े आदमी ने कहा, कि जो वास्तविक धनुर्विद है, वह धनुष को चौबीस घंटे टांगे हुए नहीं घूमता। पर धनुर्विद ने कहा, अगर ऐसा मौका आ जाए और संघर्ष हो जाएं? उसने कहा, धनुर्विद है। वह तो हाथ से भी तीर चला सकते हैं। तीर की भी जरूरत नहीं।
तो उस धनुर्विद ने दूर से खड़े होकर एक आड़ से और तीर मारा। वह जो लकड़ी काटने वाला लकड़हारा था, उसने लकड़ी का एक छोटा सा टुकड़ा ले कर तीर पर चोट की, जो तीर आ रहा था। तीर वापस लौट गया। जा कर धनुर्विद की छाती में चुभ गया।
धनुर्विद आया, पैर पर गिर पड़ा। उसने कहा, मुझे क्षमा करें। मैं तो सोचता था, धनुष के बिना कहीं धनुर्विद्या आई है? मगर तुमने तो अनूठे हो। यह कला मैं कैसे सीख सकूंगा? उसने कहा, मेरे पास रहो, सीख जाओगे।
तीन वर्ष लगे। वह यह कला सीख गया। लौटने लगा सम्राट के महल, तो उस धनुर्विद ने कहा, लेकिन रुको। मैं कुछ भी नहीं हूं। मेरा गुरु अभी जीवित है। मैं तो ऐसे ही लकड़हारा हूं। ऐसा थोड़ा अच्छिष्ट गुरु से पा लिया, वही हूं। क्योंकि जो वास्तविक धनुर्विद है, वह लकड़ी भी क्यों फेंकेगा? उसकी आंख इशारा काफी है। आंख का इशारा भी क्यों? उसके मन की धारणा काफी है। अभी जाओ मत।
यह यात्रा तो लंबी मालूम पड़ी। तीन साल तो इस आदमी के साथ बीत गए। सोचा था कि अब पारंगत हो गया। अब कोई उपद्रव न रहा। इसका गुरु भी है। लेकिन अब लौटने का भी कोई उपाय न था। रस उसे भी लग गया था।
चला इस लकड़हारे के साथ पहाड़ की बड़ी ऊंची चोटियों पर। एक अत्यंत बूढ़े आदमी को देखा, जिसकी कमर झुकी हुई थी। जो कम से कम सौ के पार कर चुका था उम्र। उस लकड़हारे ने कहा, यही मेरे गुरु हैं। उसे थोड़ी हंसी आने लगी। इसकी तो कमर झुकी है, यह तो निशाना भी नहीं लगा सकता। लेकिन अब हिम्मत खो चुकी थी पुराने अहंकार की। उसने कहा, पता नहीं…! उस बूढ़े से कहा, कि हमें भी सीखना है। तुम्हारे चरणों में आए हैं। उसने कहा, पहले परीक्षा से गुजरना पड़ेगा। आओ मेरे पीछे।
वह पहाड़ की कगार पर गया। एक भयंकर चट्टान, जो खड्ड के ऊपर दूर तक चली गई थी और जिसके नीचे हजारों फीट गहरा खड्डा था; जिस पर जरा से चूक गए, कि मृत्यु सुनिश्चित थी। वह बूढ़ा जा कर उस चट्टान की कगार पर खड़ा हो गया। आधा पैर खड्डे में झांकता हुआ कमर झुकी हुई, सिर्फ ऐड़ी के बल खड़ा। उसने कहा, आओ मेरे पास।
उसके हाथ-पैर कंपने लगे। वह उससे दूर ही, उससे चार फीट दूर ही गिर पड़ा घबड़ा कर। जो उसने खड्ड के नीचे देखा, ज्वरग्रस्त हो गया शरीर।
उस बूढ़े ने कहा, तुम कैसे धनुर्विद हो सकोगे? जिसके मन में भय है, उसका तीर निशाने पर कैसे लगेगा? भय तो कांपता ही रहता है। उसका हाथ कंपता रहेगा। अंधों को न दिखाई पड़े, लेकिन जिसके पास आंख है, वह तो देख ही लेता है, कि तेरा हाथ कंप रहा है। जहां भय है, वहां कंपन है। अभय ही निष्कंप होता है। तू तो यहां इतना कंप रहा है कि गङ्ढे के पास नहीं जा सकता। तो तू निशाना क्या लगाएगा? भाग जा यहां से।
उस धनुर्विद ने कहा जाते समय, मैं घबड़ा गया हूं। मेरी हिम्मत नहीं है इस शिक्षा में आगे उतरने की। मैं पहली परीक्षा में ही सफल हो गया। मैं यह खयाल ही छोड़ देता हूं अब धनुर्विद होने का। आप ठीक कहते हैं, मेरे भीतर कंपन है, डर है घबड़ाहट है।
और निश्चित ही जब भीतर भय हो, तो हाथ भी कंपेगा। दिखाई पड़े न दिखाई पड़े। और जब हाथ कंपेगा, तो चाहे दुनिया को दिखाई पड़े कि निशाना लग गया है, लेकिन उस बूढ़े धनुर्विद ने कहा, हम तो जानते हैं, निशाना चूक गया। निशाना लगाने से थोड़े ही लगता है। निशाना वहां थोड़े ही है। निशाना तो भीतर है। अकंप हृदय चाहिए। बस फिर सब हो जाता है।
ऊपर पक्षियों की एक कतार उड़ रही थी। उस बूढ़े आदमी ने ऐसे हाथ का इशारा किया और हाथ को नीचे गिराया। पच्चीस पक्षी नीचे गिर गए। सिर्फ इशारे से!
भाव काफी है। अगर अकंप हृदय हो तो जो भाव हो, वह तत्क्षण यथार्थ हो जाता है। अगर अकंप हृदय हो तो विचार वस्तुएं हो जाते हैं। शब्द घटनाएं हो जाती हैं।
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